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हेलो दोस्तों, ओडियोबुक Legends के इस खास एपिसोड में आप सभी का हार्दिक स्वागत है, आज हम आपको बताएंगे एक ऐसी किताब के बारे में जिसने दुनिया को ब्रह्मांड देखने का एक नया नजरिया दिया। ये कहानी है सितारों की, ग्रहों की, समय की, और उस इंसान की जिसने अपनी शारीरिक सीमाओं के बावजूद अपने दिमाग से पूरे ब्रह्मांड को नाप लिया। जी हाँ, हम बात कर रहे हैं महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग की कालजयी रचना, "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम" की। आप सोच रहे होंगे कि फिजिक्स, स्पेस, टाइम, ये सब तो बहुत जटिल बातें हैं, भला इन्हें कौन समझेगा? पर यकीन मानिए, स्टीफन हॉकिंग ने इस किताब को लिखा ही इसलिए था ताकि आम इंसान भी, बिना किसी साइंटिफिक background के, यूनिवर्स के इन गहरे रहस्यों को समझ सके। और आज ओडियोबुक Legends पर, हम इसी मुश्किल काम को और आसान बनाने वाले हैं। हम आपको इस किताब की बातें सुनाएंगे, बिलकुल एक दोस्त की तरह, आसान हिंदी में, कहानियों और उदाहरणों के साथ। ये सिर्फ एक किताब का सार नहीं है, ये एक यात्रा है। एक ऐसी यात्रा जो आपको एटम के छोटे से छोटे कण से लेकर विशालकाय गैलेक्सी तक ले जाएगी। ये यात्रा आपको समय की शुरुआत से लेकर उसके संभावित अंत तक का सफर कराएगी। आप जानेंगे कि ब्लैक होल क्या होते हैं, क्या वो सचमुच सब कुछ निगल जाते हैं? क्या टाइम ट्रेवल संभव है? यूनिवर्स कैसे बना और इसका भविष्य क्या है? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल – इस विशाल ब्रह्मांड में हमारी जगह क्या है? स्टीफन हॉकिंग सिर्फ एक महान वैज्ञानिक ही नहीं थे, वो एक अद्भुत इंसान भी थे। एक ऐसी बीमारी से जूझते हुए जिसने उनके शरीर को लगभग पूरी तरह कैद कर लिया था, उन्होंने अपने दिमाग को आजाद रखा और यूनिवर्स के वो रहस्य सुलझाए जिनके बारे में सोचने की हिम्मत भी कम लोग करते हैं। उनकी ये किताब सिर्फ विज्ञान नहीं सिखाती, ये हमें जीवन की मुश्किलों से लडने और कभी हार न मानने की प्रेरणा भी देती है। तो तैयार हो जाइए मेरे साथ इस रोमांचक सफर पर चलने के लिए। कुर्सी की पेटी बांध लीजिए, क्योंकि हम समय और स्थान की सीमाओं को पार करने वाले हैं। हम बातें करेंगे बिग बैंग की, तारों के बनने और मिटने की, और उन नियमों की जो इस पूरे खेल को चलाते हैं। क्या आप तैयार हैं यूनिवर्स के सबसे गहरे राज जानने के लिए? तो चलिए शुरू करते हैं, स्टीफन हॉकिंग की दुनिया में, उनकी किताब "ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम" के साथ, सिर्फ ओडियोबुक Legends पर। अध्याय नंबर 1: ब्रह्मांड की हमारी तस्वीर। तो दोस्तों, चलिए अपनी यात्रा शुरू करते हैं पहले अध्याय से जिसका नाम है "ब्रह्मांड की हमारी तस्वीर"। अब आप सोचेंगे कि ये कैसा नाम हुआ? क्या ब्रह्मांड की कोई एक तस्वीर है? सच तो ये है कि हम इंसान हजारों सालों से आसमान को देखते आए हैं, तारों को, चांद को, सूरज को, और हमेशा ये जानने की कोशिश करते रहे हैं कि आखिर ये सब है क्या? ये दुनिया कैसे बनी? हम कहाँ हैं? शुरुआत में, जब हमारे पास आज जैसे टेलीस्कोप और कंप्यूटर नहीं थे, तब लोगों की सोच बहुत अलग थी। प्राचीन सभ्यताओं को लगता था कि पृथ्वी चपटी है, एक प्लेट जैसी, और आसमान किसी कटोरे की तरह उसे ढके हुए है। तारे उस कटोरे में जड़े हुए हीरे जैसे लगते थे। कुछ कहानियों में तो ये भी कहा जाता था कि पृथ्वी एक विशाल कछुए की पीठ पर टिकी है, और वो कछुआ एक और कछुए पर, और ऐसे ही चलता जाता है। सुनने में अजीब लगता है ना? पर उस समय के लोगों के लिए यही सच था, यही उनकी ब्रह्मांड की तस्वीर थी। उनके पास जो जानकारी थी, जो वो अपनी आँखों से देख सकते थे, उसी के आधार पर उन्होंने ये मॉडल बनाया था। वो देखते थे कि सूरज पूरब से उगता है और पश्चिम में डूब जाता है, चाँद रात में निकलता है, तारे अपनी जगह बदलते हैं। तो उन्होंने सोचा कि ज़रूर ये सब चीजें पृथ्वी के चारों तरफ घूमती होंगी। और पृथ्वी? वो तो स्थिर है, हम कहीं हिलते हुए महसूस नहीं करते, तो वो यकीनन ब्रह्मांड का केंद्र होगी। फिर आए महान यूनानी दार्शनिक अरस्तु। ईसा से लगभग 340 साल पहले, अरस्तु ने कुछ बहुत महत्वपूर्ण बातें बताईं। उन्होंने कहा कि पृथ्वी चपटी नहीं, गोल है! उन्होंने इसके लिए सबूत भी दिए। पहला सबूत था चंद्र ग्रहण। उन्होंने देखा कि चंद्र ग्रहण के समय पृथ्वी की जो छाया चाँद पर प़डती है, वो हमेशा गोल होती है। अगर पृथ्वी चपटी होती, तो छाया कभी लंबी, कभी अंडाकार भी हो सकती थी, लेकिन ऐसा नहीं होता था। दूसरा सबूत उन्होंने दिया तारों को देखकर। उन्होंने बताया कि अगर आप दक्षिण दिशा की तरफ यात्रा करें, तो आपको आसमान में कुछ नए तारे दिखने लगते हैं, जो उत्तरी इलाकों से नहीं दिखते। और ध्रुव तारा, जो उत्तर में आसमान में एक ही जगह स्थिर दिखता है, वो नीचे होता जाता है। ये तभी हो सकता है जब पृथ्वी गोल हो। है ना कमाल की ऑब्जरवेशन? बिना किसी यंत्र के सिर्फ अपनी आँखों और दिमाग का इस्तेमाल करके अरस्तु ने ये पता लगा लिया था। अरस्तु ये भी मानते थे कि पृथ्वी स्थिर है और सूरज, चांद, तारे सब उसके चारों तरफ परफेक्ट गोल ऑर्बिट में घूमते हैं। ये विचार लगभग दो हजार सालों तक छाया रहा। लोग इसे ही सच मानते रहे। इसके बाद एक और यूनानी खगोलशास्त्री आए, टॉलेमी। उन्होंने दूसरी शताब्दी में अरस्तु के विचार को और आगे ले गया और एक पूरा मॉडल तैयार किया। उन्होंने बताया कि पृथ्वी केंद्र में है, और उसके चारों तरफ आठ घूमने वाले गोले हैं। इन गोलों पर चांद, सूरज, तारे और उस समय ज्ञात पांच ग्रह (मरकरी, वीनस, मार्स, जुपिटर, सैटर्न) टिके हुए हैं। सबसे बाहरी गोले पर सारे तारे स्थिर माने गए थे। टॉलेमी का मॉडल काफी जटिल था क्योंकि ग्रहों की गति आसमान में सीधी नहीं दिखती, वो कभी आगे जाते हैं, कभी पीछे हटते हुए लगते हैं। इसे समझाने के लिए टॉलेमी ने गोलों के अंदर और छोटे गोले घूमने की कल्पना की। ये मॉडल इतना कामयाब हुआ कि चर्च ने भी इसे अपना लिया। उनको लगा कि ये बाइबिल की बातों से मेल खाता है, जिसमें इंसान को सृष्टि का केंद्र माना गया था। तो टॉलेमी का ये पृथ्वी-केंद्रित मॉडल यानी जियोसेंट्रिक मॉडल सदियों तक राज करता रहा। लेकिन फिर आया सोलहवीं सदी का वो दौर जिसने सब कुछ बदल दिया। एक पोलिश पादरी और खगोलशास्त्री, निकोलस कॉपरनिकस ने एक क्रांतिकारी विचार पेश किया। 1514 में, उन्होंने (शुरुआत में बिना अपना नाम बताए) एक किताब लिखी जिसमें कहा गया कि पृथ्वी नहीं, बल्कि सूरज ब्रह्मांड का केंद्र है! और पृथ्वी समेत बाकी सारे ग्रह सूरज के चारों तरफ गोल कक्षाओं में घूमते हैं। ये विचार धमाकाखेज था! इसने हजारों साल पुरानी सोच को चुनौती दी थी। कॉपरनिकस का ये सूर्य-केंद्रित मॉडल यानी हीलियोसेंट्रिक मॉडल बहुत सरल था और ग्रहों की अजीबोगरीब चाल को बेहतर तरीके से समझाता था। लेकिन डर के मारे उन्होंने अपनी पूरी किताब अपनी मौत के समय, 1543 में छपवाई। उन्हें पता था कि चर्च और स्थापित मान्यताओं के खिलाफ जाना कितना खतरनाक हो सकता है। कॉपरनिकस के बाद दो और महान खगोलशास्त्री आए जिन्होंने उनके काम को आगे ले गया – जर्मनी के योहानस केप्लर और इटली के गैलीलियो गैलिली। केप्लर ने ग्रहों की गति का बहुत ध्यान से अध्ययन किया और पाया कि ग्रह सूरज के चारों तरफ परफेक्ट गोल नहीं, बल्कि अंडाकार (एलिप्टिकल) कक्षाओं में घूमते हैं। ये एक और ब़डा बदलाव था। उधर गैलीलियो ने एक नई चीज का इस्तेमाल किया – टेलीस्कोप! उन्होंने खुद टेलीस्कोप बनाकर जब आसमान में देखा, तो जो दिखा उसने टॉलेमी के मॉडल की धज्जियाँ उखेड़ दीं। गैलीलियो ने देखा कि बृहस्पति ग्रह के अपने चार छोटे-छोटे चांद हैं जो उसके चक्कर लगा रहे हैं! ये इस बात का सबूत था कि हर चीज पृथ्वी के चक्कर नहीं लगाती। उन्होंने ये भी देखा कि शुक्र ग्रह (वीनस) के भी चांद की तरह फेज होते हैं, यानी वो कभी पूरा चमकता है, कभी आधा, कभी बिल्कुल कम। ये तभी संभव था जब शुक्र सूरज के चारों तरफ घूम रहा हो, ना कि पृथ्वी के। गैलीलियो के इन अवलोकनों ने कॉपरनिकस के सूर्य-केंद्रित मॉडल को मजबूत समर्थन दिया। लेकिन गैलीलियो को इसकी भारी कीमत चुकानी प़डी। चर्च ने उन्हें धर्म के खिलाफ जाने का दोषी पाया और उन्हें अपने विचारों को नकारने पर मजबूर किया गया। उन्हें बाकी जिंदगी घर में नजरबंद रहकर गुजारनी प़डी। मगर सच को कब तक दबाया जा सकता था? गैलीलियो और केप्लर के काम ने नींव रख दी थी एक और महान वैज्ञानिक के लिए, जिनका नाम था सर आइज़क न्यूटन। 1687 में न्यूटन ने अपनी ज़बरदस्त किताब "प्रिंसिपिया मैथेमेटिका" प्रकाशित की। इस किताब में उन्होंने न सिर्फ ये बताया कि चीजें चलती कैसे हैं (उनके गति के तीन नियम), बल्कि उन्होंने गुरुत्वाकर्षण के सार्वभौमिक नियम का भी वर्णन किया। उन्होंने बताया कि कोई भी दो चीजें एक दूसरे को अपनी ओर खींचती हैं, और ये खिंचाव उनके द्रव्यमान (mass) पर और उनके बीच की दूरी पर निर्भर करता है। यही वो (फोर्स) है जो सेब को पेड़ से नीचे गिराती है, और यही वो फोर्स है जो चांद को पृथ्वी के चारों तरफ और पृथ्वी को सूरज के चारों तरफ घूमने पर मजबूर करती है! न्यूटन ने गणित का इस्तेमाल करके ये साबित कर दिया कि केप्लर के बताए अंडाकार ऑर्बिट उनके गुरुत्वाकर्षण नियम से ही निकलते हैं। ये एक बहुत ब़डी सफलता थी। न्यूटन के बाद ब्रह्मांड की हमारी तस्वीर पूरी तरह बदल गई। अब पृथ्वी कोई खास जगह नहीं रही, वो बस सूरज के चारों तरफ घूमने वाला एक ग्रह बन गई। और सूरज? वो भी कोई अनोखा तारा नहीं, बल्कि हमारी गैलेक्सी, मिल्की वे, के अरबों तारों में से एक साधारण तारा है। न्यूटन के नियमों ने समझाया कि ब्रह्मांड कुछ तय नियमों के अनुसार काम करता है, जिन्हें हम समझ सकते हैं और गणितीय रूप से व्यक्त कर सकते हैं। उन्होंने दिखाया कि धरती पर लगने वाले नियम और आसमान में लगने वाले नियम अलग-अलग नहीं, बल्कि एक ही हैं। न्यूटन की थ्योरी इतनी कामयाब रही कि लोगों को लगने लगा कि अब शायद हमने ब्रह्मांड के बारे में सब कुछ जान लिया है। ऐसा लगने लगा कि यूनिवर्स एक मशीन की तरह है, जिसके सारे पुर्जे कैसे काम करते हैं ये हमें पता चल गया है। अगर हमें किसी समय पर सभी कणों की स्थिति और गति पता हो, तो हम न्यूटन के नियमों का इस्तेमाल करके उनका भविष्य और भूतकाल पूरी सटीकता से बता सकते हैं। लेकिन क्या वाकई ऐसा था? क्या ब्रह्मांड इतना सीधा और सरल था जितना न्यूटन के नियमों से लग रहा था? क्या ब्रह्मांड हमेशा से ऐसा ही था और हमेशा ऐसा ही रहेगा? ये सवाल धीरे-धीरे वैज्ञानिकों के मन में उठने लगे। बीसवीं सदी की शुरुआत में कुछ ऐसी खोजें हुईं जिन्होंने न्यूटन की इस परफेक्ट तस्वीर पर सवाल ख़डे कर दिए। खासकर जब चीजें बहुत तेज गति से चलती हैं, या जब गुरुत्वाकर्षण बहुत ज्यादा होता है, तो न्यूटन के नियम पूरी तरह सही साबित नहीं होते। यहीं से शुरुआत होती है आधुनिक भौतिकी की, आइंस्टीन के सापेक्षता सिद्धांत (Theory of Relativity) और क्वांटम मैकेनिक्स की। ये वो सिद्धांत हैं जो हमें ब्रह्मांड की एक ज्यादा गहरी और ज्यादा अजीब तस्वीर दिखाते हैं। एक ऐसी तस्वीर जिसमें स्थान और समय स्थिर नहीं हैं, बल्कि लचीले हैं, जिसमें ऊर्जा और पदार्थ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, और जिसमें अनिश्चितता एक बुनियादी हिस्सा है। तो देखा आपने, कैसे ब्रह्मांड की हमारी समझ समय के साथ विकसित हुई है। चपटी धरती से लेकर गोल धरती तक, पृथ्वी-केंद्रित मॉडल से सूर्य-केंद्रित मॉडल तक, और फिर न्यूटन के मशीन जैसे यूनिवर्स से आइंस्टीन और क्वांटम मैकेनिक्स के अजीबोगरीब यूनिवर्स तक। हर कदम पर हमारी सोच बदली है, पुराने विचारों को चुनौती मिली है और नई खोजों ने हमें आगे बढाया है। स्टीफन हॉकिंग अपनी किताब की शुरुआत इसी इतिहास से करते हैं, ताकि हम समझ सकें कि आज हम जो जानते हैं, वो हजारों सालों की इंसानी जिज्ञासा और मेहनत का नतीजा है। लेकिन ये कहानी यहीं खत्म नहीं होती। क्या आइंस्टीन और क्वांटम मैकेनिक्स ही अंतिम सत्य हैं? या अभी भी कुछ ऐसा है जो हम नहीं जानते? ब्रह्मांड की असली तस्वीर क्या है? क्या स्थान और समय वाकई में वैसे ही हैं जैसा हम उन्हें महसूस करते हैं? इन सवालों के जवाब हमें मिलेंगे अगले अध्यायों में, जब हम आइंस्टीन के क्रांतिकारी विचारों को समझने की कोशिश करेंगे। क्या आप जानना चाहेंगे कि आइंस्टीन ने समय और स्थान के बारे में क्या कहा, जिसने न्यूटन की दुनिया को हिलाकर रख दिया? तो बने रहिए हमारे साथ ओडियोबुक Legends पर, क्योंकि अगला अध्याय आपको सोचने पर मजबूर कर देगा! अध्याय नंबर 2: स्थान और समय का रहस्य। पिछले अध्याय में हमने देखा कि कैसे ब्रह्मांड के बारे में हमारी समझ धीरे-धीरे विकसित हुई, अरस्तु और टॉलेमी के पृथ्वी-केंद्रित मॉडल से लेकर कॉपरनिकस, गैलीलियो, केप्लर और आखिर में न्यूटन के सूर्य-केंद्रित और गुरुत्वाकर्षण आधारित मॉडल तक। न्यूटन के नियमों ने हमें एक ऐसा ब्रह्मांड दिखाया जो व्यवस्थित था, जिसके नियम तय थे और जिसे समझा जा सकता था। न्यूटन के अनुसार, स्थान (Space) एक खाली मंच की तरह था, एक अनंत त्रि-आयामी (three-dimensional) जगह, जिसमें सबकुछ होता है। ये मंच खुद नहीं बदलता, चाहे उसमें कुछ भी हो रहा हो। दूरियाँ हमेशा निश्चित होती थीं, एक मीटर हमेशा एक मीटर रहता था। और समय (Time)? समय एक नदी की तरह था, जो सबके लिए एक ही गति से, लगातार आगे बहता रहता था। आपका समय और मेरा समय बिल्कुल एक साथ चलता था, चाहे हम कहीं भी हों, कुछ भी कर रहे हों। इसे 'एब्सोल्यूट स्पेस' और 'एब्सोल्यूट टाइम' कहा गया। ये विचार इतने सहज लगते हैं कि हमें लगता है कि हाँ, ऐसा ही तो होता है! हम सब अपनी जिंदगी में स्पेस और टाइम को ऐसे ही अनुभव करते हैं। हमारी घड़ियां एक साथ चलती हैं (लगभग!), और हमारे आसपास की जगह स्थिर लगती है। लेकिन दोस्तों, बीसवीं सदी की शुरुआत में एक क्लर्क, जो अपने खाली समय में फिजिक्स के बारे में सोचता था, उसने इन सहज लगने वाले विचारों पर ही सवाल खडे कर दिए। हाँ, मैं बात कर रहा हूँ अल्बर्ट आइंस्टीन की। 1905 में, जिसे उनका 'चमत्कारी वर्ष' (Annus Mirabilis) कहा जाता है, आइंस्टीन ने कुछ ऐसे पेपर प्रकाशित किए जिन्होंने भौतिकी की दुनिया में भूचाल ला दिया। इनमें से एक था 'स्पेशल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी' (Special Theory of Relativity) यानी विशिष्ट सापेक्षता का सिद्धांत। आइंस्टीन ने ये सिद्धांत दो बुनियादी मान्यताओं पर आधारित किया था। पहली मान्यता थी कि भौतिकी के नियम उन सभी देखने वालों के लिए समान होते हैं जो एक-दूसरे के सापेक्ष स्थिर गति से चल रहे हों (यानी जिनकी गति बदल नहीं रही हो)। इसका मतलब है कि चाहे आप जमीन पर खडे हों या एक बिलकुल स्मूथ चलती हुई ट्रेन में, भौतिकी के प्रयोगों के नतीजे एक जैसे ही आएंगे। ये बात गैलीलियो के समय से ही जानी जाती थी, लेकिन आइंस्टीन ने इसे अपना पहला सिद्धांत बनाया। दूसरी मान्यता ज्यादा क्रांतिकारी थी। आइंस्टीन ने कहा कि प्रकाश की गति (speed of light) वैक्यूम में (यानी खाली जगह में) हमेशा स्थिर रहती है, चाहे प्रकाश का स्रोत (source) किसी भी गति से चल रहा हो, या देखने वाला (observer) किसी भी गति से चल रहा हो। ये बात हमारी रोजमर्रा की समझ के बिल्कुल खिलाफ है! सोचिए, अगर आप एक कार में 60 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से जा रहे हैं और सामने से एक और कार 60 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से आ रही है, तो आपके लिए दूसरी कार की रफ्तार 120 किलोमीटर प्रति घंटा होगी। लेकिन आइंस्टीन ने कहा कि प्रकाश के साथ ऐसा नहीं होता। अगर आप एक स्पेसशिप में प्रकाश की आधी गति से जा रहे हैं और सामने से एक प्रकाश की किरण आ रही है, तो भी आपके लिए उस किरण की गति 'c' (प्रकाश की गति का सिंबल) ही होगी, न कि 1.5c! और अगर आप उसी स्पेसशिप से एक टॉर्च जलाते हैं, तो उस टॉर्च से निकलने वाले प्रकाश की गति भी आपके लिए 'c' ही होगी, न कि आपकी गति जमा 'c'। ये बहुत अजीब बात थी, लेकिन मैक्सवेल के इलेक्ट्रोमैग्नेटिज्म के समीकरण यही बताते थे, और कई प्रयोगों ने भी इसकी पुष्टि की थी। आइंस्टीन ने हिम्मत दिखाई और इन दोनों मान्यताओं को स्वीकार कर लिया। और फिर उन्होंने सोचा कि अगर ये दोनों बातें सच हैं, तो इसका हमारे स्पेस और टाइम की समझ पर क्या असर पडेगा? और यहीं से निकली स्पेशल रिलेटिविटी की सबसे चौंकाने वाली बात – कि स्पेस और टाइम एब्सोल्यूट नहीं हैं! वो रिलेटिव हैं, यानी सापेक्ष हैं। इसका मतलब है कि अलग-अलग गति से चल रहे लोगों के लिए समय अलग-अलग गति से बीतता है और दूरियाँ भी अलग-अलग महसूस होती हैं! जी हाँ, आपने सही सुना। आइंस्टीन के अनुसार, अगर कोई व्यक्ति आपके सापेक्ष बहुत तेज गति से यात्रा कर रहा है, तो आपके लिए उसकी घडी धीमी चलेगी! इसे 'टाइम डाइलेशन' (Time Dilation) कहते हैं। और सिर्फ घडी ही नहीं, उसके लिए समय ही धीमा बीतेगा, उसकी साँसें धीमी होंगी, उसकी उम्र धीमी बढेगी (हालांकि उसे खुद ये महसूस नहीं होगा)। इसी तरह, उस तेज गति से चलते हुए व्यक्ति के लिए, गति की दिशा में दूरियाँ सिकुड़ जाएंगी! इसे 'लेंथ कॉन्ट्रैक्शन' (Length Contraction) कहते हैं। एक मीटर की छड़ी शायद उसके लिए कुछ सेंटीमीटर छोटी हो जाए। ये बातें इतनी अजीब लगती हैं कि यकीन करना मुश्किल होता है। हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में ऐसा कुछ क्यों नहीं दिखता? इसका कारण ये है कि ये असर तभी महत्वपूर्ण होते हैं जब गति प्रकाश की गति के करीब होती है। हमारी आम रफ्तारें (जैसे कार, ट्रेन, हवाई जहाज) प्रकाश की गति (जो लगभग 3 लाख किलोमीटर प्रति सेकंड है!) की तुलना में बहुत-बहुत कम हैं। इसलिए हमारी घड़ियों में फर्क इतना कम होता है कि उसे मापा नहीं जा सकता, और दूरियाँ भी उतनी ही रहती हैं। लेकिन जब कणों को पार्टिकल एक्सेलरेटर में लगभग प्रकाश की गति तक तेज किया जाता है, तो ये टाइम डाइलेशन और लेंथ कॉन्ट्रैक्शन बिलकुल सटीक रूप से देखे जाते हैं! यहाँ तक कि GPS सैटेलाइट्स, जो पृथ्वी के चारों तरफ काफी तेज घूमते हैं, उन्हें भी अपने सिग्नल भेजते समय रिलेटिविटी के इन प्रभावों को ध्यान में रखना प़डता है, वरना GPS लोकेशन गलत हो जाएगी। तो आइंस्टीन की ये अजीब लगने वाली बातें सिर्फ थ्योरी नहीं, बल्कि हकीकत हैं। स्पेशल रिलेटिविटी ने एक और धमाका किया – उसने बताया कि द्रव्यमान (Mass) और ऊर्जा (Energy) अलग-अलग चीजें नहीं हैं, बल्कि एक ही चीज के दो रूप हैं! आइंस्टीन का मशहूर समीकरण E बराबर m c स्क्वायर यही कहता है। यहाँ E ऊर्जा है, m द्रव्यमान है, और c प्रकाश की गति है। चूँकि c का मान बहुत ज्यादा ब़डा है, इसका मतलब है कि थो़डे से द्रव्यमान में भी अपार ऊर्जा छिपी होती है। यही सिद्धांत परमाणु बम और न्यूक्लियर पावर प्लांट का आधार है। इस समीकरण ने ये भी समझाया कि कोई भी चीज जिसका द्रव्यमान है, वो प्रकाश की गति तक नहीं पहुँच सकती, क्योंकि जैसे-जैसे उसकी गति बढेगी, उसका प्रभावी द्रव्यमान भी बढता जाएगा, और उसे और तेज करने के लिए अनंत ऊर्जा की जरूरत होगी। सिर्फ वही चीजें प्रकाश की गति से चल सकती हैं जिनका कोई रेस्ट मास (विराम द्रव्यमान) नहीं होता, जैसे कि फोटॉन (प्रकाश के कण)। तो स्पेशल रिलेटिविटी ने न्यूटन के एब्सोल्यूट स्पेस और एब्सोल्यूट टाइम को बदलकर रिलेटिव स्पेस और रिलेटिव टाइम कर दिया। इसने मास और एनर्जी को एक कर दिया। लेकिन ये कहानी का सिर्फ आधा हिस्सा था। स्पेशल रिलेटिविटी सिर्फ स्थिर गति पर लागू होती थी। उन स्थितियों का क्या जहाँ गति बदल रही हो (यानी एक्सीलरेशन हो रहा हो)? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल, गुरुत्वाकर्षण (Gravity) का क्या? न्यूटन ने बताया था कि गुरुत्वाकर्षण एक खिंचाव है, एक फोर्स है, जो दो द्रव्यमान वाली चीजों के बीच तुरंत काम करता है, चाहे वो कितनी भी दूर क्यों न हों। लेकिन स्पेशल रिलेटिविटी कहती थी कि कोई भी चीज प्रकाश की गति से तेज नहीं चल सकती, तो गुरुत्वाकर्षण का असर तुरंत कैसे पहुँच सकता है? ये एक पहेली थी। आइंस्टीन ने अगले दस साल इसी पहेली को सुलझाने में लगा दिए। और 1915 में, उन्होंने दुनिया को दिया अपना मास्टरपीस – 'जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी' (General Theory of Relativity) यानी सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत। ये थ्योरी गुरुत्वाकर्षण की एक बिलकुल नई और क्रांतिकारी तस्वीर पेश करती थी। आइंस्टीन ने कहा कि गुरुत्वाकर्षण कोई फोर्स या खिंचाव है ही नहीं! बल्कि ये स्पेस और टाइम के ताने-बाने में होने वाला बदलाव (curvature or warping) है, जो द्रव्यमान और ऊर्जा की उपस्थिति के कारण होता है। सोचिए, स्पेस और टाइम एक चादर की तरह हैं। जब आप उस चादर पर कोई भारी चीज (जैसे एक बोलिंग बॉल) रखते हैं, तो चादर उस जगह से नीचे धँस जाती है, मुड़ जाती है। अब अगर आप एक छोटी कंचे जैसी चीज को उस बॉल के पास लु़ढकाएंगे, तो वो सीधी जाने की बजाय उस धँसे हुए हिस्से की तरफ मुड़ जाएगी, और शायद उस बॉल के चारों तरफ चक्कर लगाने लगे। हमें ऐसा लगेगा कि बॉल कंचे को अपनी तरफ खींच रही है, लेकिन असल में कंचा तो बस उस मुड़े हुए स्पेस-टाइम के रास्ते पर चल रहा है! यही आइंस्टीन का आइडिया था। उन्होंने कहा कि सूरज, पृथ्वी, और बाकी खगोलीय पिंड स्पेस-टाइम को अपने द्रव्यमान से मोड़ देते हैं। और ग्रह जो सूरज के चक्कर लगाते हैं, वो असल में सूरज के खिंचाव के कारण नहीं, बल्कि सूरज द्वारा मोडे गए स्पेस-टाइम के जियोडेसिक (geodesic - दो बिंदुओं के बीच सबसे छोटा या सीधा रास्ता) पर चल रहे होते हैं! ये एक माइंड-ब्लोइंग कांसेप्ट था! इसने गुरुत्वाकर्षण को स्पेस और टाइम की ज्योमेट्री (geometry) से जोड़ दिया। जनरल रिलेटिविटी के अनुसार, सिर्फ स्पेस ही नहीं, बल्कि टाइम भी गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होता है। जहाँ गुरुत्वाकर्षण ज्यादा मजबूत होता है (जैसे किसी भारी तारे के पास), वहाँ समय धीमा बीतता है! इसे 'ग्रेविटेशनल टाइम डाइलेशन' (Gravitational Time Dilation) कहते हैं। ये असर भी प्रयोगों द्वारा साबित हो चुका है। पृथ्वी पर भी, जमीन की सतह पर (जहाँ गुरुत्वाकर्षण थो़डा ज्यादा है) घड़ियाँ पहाड़ों की चोटी की तुलना में थो़डी धीमी चलती हैं (हालांकि ये फर्क बहुत ही मामूली होता है)। जनरल रिलेटिविटी ने कई भविष्यवाणियाँ कीं, जिन्हें बाद में सच पाया गया। एक भविष्यवाणी थी कि गुरुत्वाकर्षण प्रकाश को भी मोड़ सकता है। क्योंकि प्रकाश भी स्पेस-टाइम से होकर गुजरता है, और अगर स्पेस-टाइम मुड़ा हुआ है, तो प्रकाश का रास्ता भी मुड़ जाएगा। 1919 में, एक सूर्य ग्रहण के दौरान, सर आर्थर एडिंगटन ने दूर के तारों से आने वाले प्रकाश का अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि जो तारे सूरज के बिल्कुल पास से दिख रहे थे, उनकी पोजीशन थो़डी हटी हुई लग रही थी, ठीक उतनी ही जितनी आइंस्टीन की थ्योरी ने भविष्यवाणी की थी! ये आइंस्टीन के लिए एक बहुत ब़डी जीत थी और इसने उन्हें रातोंरात दुनिया भर में मशहूर कर दिया। एक और भविष्यवाणी थी मरकरी ग्रह के ऑर्बिट के बारे में। न्यूटन की थ्योरी मरकरी के ऑर्बिट की एक छोटी सी गड़बड़ी (precession) को नहीं समझा पा रही थी, लेकिन आइंस्टीन की जनरल रिलेटिविटी ने उसे बिलकुल सटीक रूप से समझाया। हाल ही में, 2015 में, वैज्ञानिकों ने एक और भविष्यवाणी की पुष्टि की – ग्रेविटेशनल वेव्स (Gravitational Waves) यानी गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाना। आइंस्टीन ने कहा था कि जब बहुत भारी चीजें (जैसे ब्लैक होल या न्यूट्रॉन स्टार) आपस में टकराती हैं, तो वो स्पेस-टाइम में लहरें पैदा करती हैं, जो प्रकाश की गति से फैलती हैं। LIGO और Virgo ऑब्जरवेटरीज ने इन तरंगों को डिटेक्ट करके जनरल रिलेटिविटी को एक बार फिर सही साबित कर दिया। तो आइंस्टीन की इन दो थ्योरीज (स्पेशल और जनरल रिलेटिविटी) ने स्पेस और टाइम के बारे में हमारी पूरी समझ को उलट-पुलट कर दिया। अब स्पेस और टाइम कोई स्थिर बैकग्राउंड नहीं थे, बल्कि वो डायनामिक थे, लचीले थे, ब्रह्मांड के पदार्थ और ऊर्जा से प्रभावित होते थे। उन्होंने एक एकीकृत संरचना बनाई जिसे 'स्पेस-टाइम' (Spacetime) कहा जाता है। ये चार आयामी (four-dimensional) है – तीन स्पेस के और एक टाइम का। ब्रह्मांड में होने वाली हर घटना इस स्पेस-टाइम में एक बिंदु है। और चीजें इस स्पेस-टाइम के ताने-बाने पर चलती हैं, जिसे गुरुत्वाकर्षण मोड़ता रहता है। ये एक ऐसी तस्वीर है जो न्यूटन की दुनिया से कहीं ज्यादा जटिल, कहीं ज्यादा रहस्यमयी और कहीं ज्यादा खूबसूरत है। लेकिन क्या ये तस्वीर पूरी है? क्या जनरल रिलेटिविटी ही सब कुछ समझा सकती है? स्टीफन हॉकिंग हमें बताते हैं कि नहीं। जनरल रिलेटिविटी बहुत ब़डी चीजों – ग्रहों, तारों, गैलेक्सी, और पूरे ब्रह्मांड – को बहुत अच्छे से समझाती है। लेकिन जब हम बहुत छोटी चीजों की दुनिया में जाते हैं – एटम, इलेक्ट्रॉन, फोटॉन – तो वहाँ एक और थ्योरी काम करती है, जिसे क्वांटम मैकेनिक्स कहते हैं। और सबसे ब़डी पहेली ये है कि ये दोनों महान थ्योरीज (जनरल रिलेटिविटी और क्वांटम मैकेनिक्स) आपस में मेल नहीं खातीं! खासकर उन जगहों पर जहाँ गुरुत्वाकर्षण बहुत ज्यादा मजबूत होता है और चीजें बहुत छोटी होती हैं, जैसे कि ब्लैक होल के केंद्र में या बिग बैंग के समय। इन दोनों थ्योरीज को एक साथ लाने की कोशिश ही आधुनिक भौतिकी की सबसे ब़डी चुनौतियों में से एक है, जिसे 'क्वांटम ग्रेविटी' (Quantum Gravity) या 'थ्योरी ऑफ एवरीथिंग' (Theory of Everything) की खोज कहा जाता है। तो देखा आपने, स्पेस और टाइम कितने रहस्यमयी हैं? वो वैसे बिलकुल नहीं हैं जैसे हमें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में लगते हैं। वो बदलते हैं, मुड़ते हैं, और ब्रह्मांड के नाटक में सिर्फ मंच ही नहीं, बल्कि खुद भी एक किरदार निभाते हैं। आइंस्टीन ने हमें ये अद्भुत नजरिया दिया। लेकिन इस नजरिए ने कुछ और गहरे सवाल भी खडे कर दिए हैं। अगर स्पेस-टाइम मुड़ सकता है, तो क्या ये इतना मुड़ सकता है कि अपने आप में ढह जाए? और अगर यूनिवर्स की शुरुआत एक बिंदु से हुई, तो उस समय स्पेस-टाइम कैसा था? क्या यूनिवर्स हमेशा फैलता ही रहेगा? इन सवालों के जवाब हमें तब मिलेंगे जब हम यूनिवर्स के विस्तार और क्वांटम दुनिया की अनिश्चितताओं को समझेंगे। क्या आप जानना चाहते हैं कि हमारा यूनिवर्स कैसे फैल रहा है और इस फैलाव की खोज किसने और कैसे की? क्या ये फैलाव हमेशा चलता रहेगा या रुक जाएगा? जानने के लिए सुनते रहिए ओडियोबुक Legends, क्योंकि अगला अध्याय ब्रह्मांड के एक और ब़डे रहस्य से पर्दा उठाने वाला है! अध्याय नंबर 3: फैलता हुआ ब्रह्मांड। पिछले अध्याय में हमने आइंस्टीन के क्रांतिकारी विचारों को समझा, जिन्होंने स्पेस और टाइम को एब्सोल्यूट से रिलेटिव बना दिया और गुरुत्वाकर्षण को स्पेस-टाइम के मु़डने का नतीजा बताया। जनरल रिलेटिविटी ने हमें ब्रह्मांड को देखने का एक नया लेंस दिया। लेकिन इस लेंस से जब वैज्ञानिकों ने यूनिवर्स को देखा, तो उन्हें कुछ ऐसा दिखा जिसकी किसी ने उम्मीद नहीं की थी – हमारा ब्रह्मांड फैल रहा है! ये खोज बीसवीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण खगोलीय खोजों में से एक थी, और इसने ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसके भविष्य के बारे में हमारी समझ को पूरी तरह बदल दिया। ये कहानी शुरू होती है आइंस्टीन की जनरल रिलेटिविटी के समीकरणों से ही। जब आइंस्टीन ने अपने समीकरणों को पूरे यूनिवर्स पर लागू किया, तो उन्हें एक अजीब नतीजा मिला। उनके समीकरण बता रहे थे कि यूनिवर्स स्थिर (static) नहीं हो सकता। उसे या तो फैलना (expand) चाहिए या सिकुड़ना (contract) चाहिए। लेकिन उस समय (1917 के आसपास) ज्यादातर वैज्ञानिक, आइंस्टीन खुद समेत, यही मानते थे कि यूनिवर्स हमेशा से ऐसा ही है और हमेशा ऐसा ही रहेगा – अनंत, अपरिवर्तनशील और स्थिर। ये विचार प्राचीन काल से चला आ रहा था। तो अपने समीकरणों के इस नतीजे से आइंस्टीन थो़डा परेशान हो गए। उन्हें लगा कि उनके समीकरणों में कुछ गड़बड़ है। स्थिर यूनिवर्स पाने के लिए, उन्होंने अपने समीकरणों में जबरदस्ती एक नया पद (term) जोड़ दिया, जिसे उन्होंने 'कॉस्मोलॉजिकल कांस्टेंट' (Cosmological Constant) कहा। ये एक तरह की काल्पनिक एंटी-ग्रेविटी फोर्स थी, जो गुरुत्वाकर्षण के खिंचाव को संतुलित करके यूनिवर्स को स्थिर बनाए रखती थी। बाद में आइंस्टीन ने इसे अपनी 'सबसे ब़डी भूल' (biggest blunder) कहा था। इसी दौरान, एक रूसी गणितज्ञ और मौसम विज्ञानी, अलेक्जेंडर फ्रीडमन (Alexander Friedmann) ने आइंस्टीन के मूल समीकरणों (बिना कॉस्मोलॉजिकल कांस्टेंट के) का अध्ययन किया। 1922 में, फ्रीडमन ने दिखाया कि आइंस्टीन के समीकरणों के ऐसे हल संभव हैं जो एक फैलते हुए या सिकुड़ते हुए यूनिवर्स का वर्णन करते हैं। उन्होंने कुछ मॉडल बनाए जिनमें यूनिवर्स एक बिंदु से शुरू होकर फैलता है, फिर शायद गुरुत्वाकर्षण के कारण रुककर वापस सिकुड़ने लगता है। या फिर ये हमेशा फैलता ही रहता है। या ये धीरे-धीरे फैलना बंद कर देता है। फ्रीडमन का काम शुरुआत में ज्यादा लोगों की नजर में नहीं आया, और दुर्भाग्य से 1925 में उनकी बहुत कम उम्र में मृत्यु हो गई। इसी तरह, 1927 में, एक बेल्जियन पादरी और भौतिक विज्ञानी, जॉर्ज लमैत्रे (Georges Lemaître) भी स्वतंत्र रूप से इसी नतीजे पर पहुँचे कि आइंस्टीन की थ्योरी एक फैलते हुए यूनिवर्स की भविष्यवाणी करती है। लमैत्रे ने तो ये भी सुझाव दिया कि अगर यूनिवर्स फैल रहा है, तो इसका मतलब है कि अतीत में ये बहुत छोटा और घना रहा होगा। उन्होंने इसे 'प्रारंभिक परमाणु' (Primeval Atom) का विचार कहा, जो बाद में 'बिग बैंग' (Big Bang) थ्योरी का आधार बना। लेकिन ये सब अभी तक सिर्फ थ्योरी थी, गणितीय संभावनाएं थीं। क्या वाकई में यूनिवर्स फैल रहा है? इसका सबूत आया एक अमेरिकी खगोलशास्त्री एडविन हबल (Edwin Hubble) के काम से। 1920 के दशक में, हबल उस समय के सबसे शक्तिशाली टेलीस्कोप, माउंट विल्सन ऑब्जरवेटरी के 100 इंच वाले टेलीस्कोप का इस्तेमाल करके दूर की 'नीहारिकाओं' (nebulae) का अध्ययन कर रहे थे। उस समय ये बहस चल रही थी कि क्या ये नीहारिकाएं हमारी अपनी गैलेक्सी, मिल्की वे, का ही हिस्सा हैं, या फिर ये मिल्की वे जैसी ही 'द्वीप ब्रह्मांड' (island universes) हैं, जो हमसे बहुत दूर स्थित हैं। हबल ने इन नीहारिकाओं में कुछ खास तरह के तारे खोजे, जिन्हें सेफीड चर तारे (Cepheid variable stars) कहते हैं। इन तारों की खासियत ये होती है कि उनकी चमक एक नियमित अंतराल पर बदलती है, और उनकी चमक बदलने की गति (period) उनकी असली चमक (intrinsic brightness) से जुड़ी होती है। तो अगर आप उनकी चमक बदलने की गति माप लें, तो आप उनकी असली चमक जान सकते हैं। फिर उनकी देखी गई चमक (apparent brightness) से तुलना करके आप उनकी दूरी का पता लगा सकते हैं (क्योंकि कोई चीज जितनी दूर होती है, उतनी ही धुंधली दिखती है)। इस तकनीक का इस्तेमाल करके, हबल ने कई नीहारिकाओं की दूरियाँ मापीं। 1924 में उन्होंने घोषणा की कि एंड्रोमेडा नीहारिका (Andromeda Nebula) हमारी मिल्की वे के अंदर नहीं, बल्कि बहुत दूर स्थित है – लगभग 9 लाख प्रकाश वर्ष दूर (आज हम जानते हैं कि ये दूरी लगभग 25 लाख प्रकाश वर्ष है)। उन्होंने साबित कर दिया कि ये नीहारिकाएं असल में हमारी गैलेक्सी जैसी ही दूसरी गैलेक्सी हैं, जो अंतरिक्ष में बिखरी हुई हैं। ये अपने आप में एक बहुत ब़डी खोज थी! इसने हमारे ब्रह्मांड के आकार को अचानक अरबों गुना ब़डा कर दिया। लेकिन हबल यहीं नहीं रुके। उन्होंने इन दूर की गैलेक्सियों से आने वाले प्रकाश का भी विश्लेषण किया। उन्होंने देखा कि इन गैलेक्सियों के प्रकाश के स्पेक्ट्रम में रेखाएं (spectral lines) लाल रंग की ओर खिसकी हुई (shifted) हैं। इसे 'रेडशिफ्ट' (Redshift) कहते हैं। रेडशिफ्ट ठीक वैसे ही काम करता है जैसे डॉपलर इफेक्ट (Doppler Effect) ध्वनि के साथ काम करता है। जब कोई एम्बुलेंस आपकी तरफ आती है, तो उसकी आवाज तीखी (ऊँची फ्रीक्वेंसी) लगती है, और जब वो आपसे दूर जाती है, तो आवाज मोटी (नीची फ्रीक्वेंसी) लगती है। प्रकाश के साथ भी ऐसा ही होता है। जब कोई चीज हमसे दूर जा रही होती है, तो उससे आने वाली प्रकाश तरंगें खिंच जाती हैं, उनकी वेवलेंथ लंबी हो जाती है, और वो स्पेक्ट्रम में लाल रंग की तरफ खिसक जाती हैं। अगर कोई चीज हमारी तरफ आ रही होती, तो ब्लूशिफ्ट (Blueshift) होता। हबल ने पाया कि लगभग सभी दूर की गैलेक्सियां रेडशिफ्ट दिखा रही हैं, जिसका मतलब था कि वो हमसे दूर जा रही हैं! और इससे भी ज्यादा चौंकाने वाली बात ये थी कि उन्होंने पाया कि गैलेक्सी जितनी ज्यादा दूर है, उतनी ही तेजी से वो हमसे दूर जा रही है! यानी दूरी और दूर जाने की गति के बीच एक सीधा संबंध था। इसे आज 'हबल का नियम' (Hubble's Law) कहा जाता है (हालांकि अब इसे हबल-लमैत्रे नियम कहा जाता है, लमैत्रे के योगदान को मान्यता देते हुए)। हबल ने इसे 1929 में प्रकाशित किया। ये इस बात का पक्का सबूत था कि यूनिवर्स सचमुच फैल रहा है! ये खोज आइंस्टीन के लिए भी एक झटका था। जब हबल ने उन्हें अपने नतीजे दिखाए, तो आइंस्टीन मान गए कि उनका कॉस्मोलॉजिकल कांस्टेंट जोड़ना एक गलती थी। फ्रीडमन और लमैत्रे सही थे। यूनिवर्स स्थिर नहीं है, ये गतिशील है, ये फैल रहा है। लेकिन ये फैलाव कैसा है? क्या गैलेक्सियां खुद स्पेस में से होकर दूर भाग रही हैं, जैसे किसी विस्फोट के बाद टुकड़े भागते हैं? नहीं, ऐसा नहीं है। इसे समझने का सही तरीका ये है कि खुद स्पेस ही फैल रहा है! सोचिए एक गुब्बारे की सतह पर आपने कुछ बिंदियां बना दी हैं। जब आप गुब्बारे को फुलाते हैं, तो सतह फैलती है, और सारी बिंदियां एक-दूसरे से दूर जाने लगती हैं। कोई भी बिंदी केंद्र में नहीं होती, और हर बिंदी से देखने पर ऐसा लगता है कि बाकी सब बिंदियां उससे दूर जा रही हैं, और जो बिंदी जितनी दूर है, वो उतनी ही तेजी से दूर जा रही है। ठीक इसी तरह, हमारे यूनिवर्स में गैलेक्सियां स्पेस के फैलने की वजह से एक-दूसरे से दूर जा रही हैं। स्पेस खुद ही स्ट्रेच हो रहा है, और गैलेक्सियां उस फैलते हुए स्पेस के साथ बह रही हैं। इसका मतलब ये भी है कि यूनिवर्स का कोई केंद्र नहीं है, और कोई किनारा भी नहीं है (कम से कम जहाँ तक हम जानते हैं)। हर जगह से देखने पर यूनिवर्स एक जैसा ही फैलता हुआ दिखेगा। इस फैलते हुए यूनिवर्स की खोज ने तुरंत एक और सवाल ख़डा कर दिया: अगर यूनिवर्स आज फैल रहा है, तो अतीत में क्या हुआ होगा? अगर हम समय में पीछे जाएं, तो यूनिवर्स छोटा और छोटा होता गया होगा। गैलेक्सियां पास आती गई होंगी, तापमान बढ़ता गया होगा, घनत्व (density) बढता गया होगा। अगर हम काफी पीछे जाएं, तो एक ऐसा समय आया होगा जब सारा पदार्थ और सारी ऊर्जा एक ही बिंदु में सिमटी हुई होगी – एक अत्यधिक गर्म, अत्यधिक घनी अवस्था। यहीं से जॉर्ज लमैत्रे के 'प्रारंभिक परमाणु' का विचार 'बिग बैंग थ्योरी' के रूप में विकसित हुआ। ये थ्योरी कहती है कि हमारा यूनिवर्स लगभग 13.8 अरब साल पहले एक महाविस्फोट जैसी घटना से शुरू हुआ था। ये कोई धमाका नहीं था जो स्पेस में हुआ, बल्कि ये खुद स्पेस और टाइम की शुरुआत थी। उस शुरुआती पल में, यूनिवर्स अकल्पनीय रूप से गर्म और घना था। फिर ये तेजी से फैलना और ठंडा होना शुरू हुआ। जैसे-जैसे ये ठंडा हुआ, ऊर्जा कणों में बदली, फिर कण मिलकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बने, फिर न्यूक्लियस बने, और आखिरकार एटम बने। गुरुत्वाकर्षण ने धीरे-धीरे पदार्थ को इकट्ठा करना शुरू किया, जिससे तारे और गैलेक्सियां बनीं। और ये फैलाव आज भी जारी है। बिग बैंग थ्योरी आज यूनिवर्स की उत्पत्ति और विकास का सबसे स्वीकृत मॉडल है। इसे कई सबूतों का समर्थन हासिल है। पहला सबूत तो खुद हबल का नियम है – यूनिवर्स का फैलाव। दूसरा महत्वपूर्ण सबूत है कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (Cosmic Microwave Background - CMB)। बिग बैंग थ्योरी भविष्यवाणी करती है कि शुरुआती गर्म यूनिवर्स से निकली रोशनी अब तक हम तक पहुँचनी चाहिए, लेकिन यूनिवर्स के फैलने के कारण उसकी वेवलेंथ बहुत लंबी हो गई होगी और वो माइक्रोवेव रेडिएशन के रूप में दिखाई देगी। ये रेडिएशन पूरे आसमान से एक समान रूप से आनी चाहिए। 1964 में, दो अमेरिकी वैज्ञानिक, आर्नो पेंजियास और रॉबर्ट विल्सन, संयोग से इस रेडिएशन को खोजने में कामयाब हुए। उन्हें हर दिशा से एक हल्की सी माइक्रोवेव की 'गुनगुनाहट' सुनाई दे रही थी, जिसे वो हटा नहीं पा रहे थे। बाद में पता चला कि यही बिग बैंग की बची हुई गूँज थी! CMB की खोज बिग बैंग थ्योरी के लिए एक जबरदस्त सबूत साबित हुई और पेंजियास और विल्सन को इसके लिए नोबेल पुरस्कार मिला। तीसरा सबूत है हल्के तत्वों (जैसे हाइड्रोजन, हीलियम, लिथियम) की प्रचुरता (abundance)। बिग बैंग के बाद शुरुआती कुछ मिनटों में जो स्थितियाँ थीं, उनमें ये हल्के तत्व बने होंगे। थ्योरी जितनी मात्रा की भविष्यवाणी करती है, वो हमारे यूनिवर्स में देखी गई मात्रा से बिलकुल मेल खाती है। तो हबल की खोज ने न सिर्फ ये बताया कि यूनिवर्स फैल रहा है, बल्कि उसने हमें यूनिवर्स की शुरुआत, यानी बिग बैंग तक पहुँचा दिया। लेकिन अब एक और सवाल उठता है – क्या ये फैलाव हमेशा चलता रहेगा? या कभी रुकेगा? इसका जवाब इस बात पर निर्भर करता है कि यूनिवर्स में कुल कितना पदार्थ और ऊर्जा है। अगर यूनिवर्स में काफी ज्यादा पदार्थ है, तो उसका गुरुत्वाकर्षण फैलाव को धीरे-धीरे धीमा कर देगा, और शायद एक दिन यूनिवर्स फैलना बंद करके वापस सिकुड़ने लगे, और एक 'बिग क्रंच' (Big Crunch) में खत्म हो जाए। अगर यूनिवर्स में कम पदार्थ है, तो गुरुत्वाकर्षण फैलाव को रोक नहीं पाएगा, और यूनिवर्स हमेशा-हमेशा फैलता ही रहेगा, ठंडा और खाली होता जाएगा। और अगर यूनिवर्स में ठीक उतनी मात्रा में पदार्थ है (जिसे क्रिटिकल डेंसिटी कहते हैं), तो फैलाव धीरे-धीरे धीमा तो होगा, लेकिन कभी रुकेगा नहीं, अनंत समय में शून्य गति तक पहुँच जाएगा। कई दशकों तक वैज्ञानिक यूनिवर्स की कुल डेंसिटी मापने की कोशिश करते रहे, ताकि उसका भविष्य पता चल सके। शुरुआती अनुमानों से लग रहा था कि यूनिवर्स में शायद इतना पदार्थ नहीं है कि वो फैलाव को रोक सके। ऐसा लग रहा था कि हम हमेशा फैलते रहने वाले यूनिवर्स में रहते हैं। लेकिन फिर, 1990 के दशक के अंत में, एक और चौंकाने वाली खोज हुई। दो स्वतंत्र टीमों ने बहुत दूर के सुपरनोवा (विस्फोट करते तारे) का अध्ययन करके पाया कि यूनिवर्स का फैलाव धीमा नहीं हो रहा है, बल्कि तेज हो रहा है! यूनिवर्स एक्सीलरेट कर रहा है! ये खोज इतनी अप्रत्याशित थी कि इसने कॉस्मोलॉजी में फिर से हलचल मचा दी। इसका क्या मतलब हो सकता है? फैलाव तेज क्यों हो रहा है? गुरुत्वाकर्षण तो चीजों को खींचता है, फैलाव को धीमा करना चाहिए! इसे समझाने के लिए, वैज्ञानिकों को आइंस्टीन के उस 'कॉस्मोलॉजिकल कांस्टेंट' की याद आई, जिसे उन्होंने अपनी 'सबसे ब़डी भूल' कहा था। शायद वो भूल नहीं थी! शायद यूनिवर्स में एक ऐसी रहस्यमयी ऊर्जा है, जिसे 'डार्क एनर्जी' (Dark Energy) कहा जाता है, जो स्पेस में फैली हुई है और एक तरह की एंटी-ग्रेविटी का काम करती है, जो यूनिवर्स के फैलाव को तेज कर रही है। आज के अनुमानों के अनुसार, हमारे यूनिवर्स का लगभग 68% हिस्सा इसी डार्क एनर्जी से बना है! लगभग 27% हिस्सा 'डार्क मैटर' (Dark Matter) है – एक और रहस्यमयी चीज जो रोशनी नहीं छोड़ती लेकिन जिसका गुरुत्वाकर्षण महसूस होता है। और सिर्फ 5% हिस्सा ही वो साधारण पदार्थ (एटम, तारे, ग्रह, हम और आप) है जिसे हम देख सकते हैं और जानते हैं! सोचिए, हम जिस यूनिवर्स को जानते हैं, वो उसका सिर्फ एक छोटा सा अंश है! बाकी 95% रहस्य है – डार्क मैटर और डार्क एनर्जी। तो यूनिवर्स का फैलाव एक पहेली बना हुआ है। हम जानते हैं कि ये हो रहा है, हम जानते हैं कि ये तेज हो रहा है, लेकिन हम पूरी तरह से नहीं जानते कि क्यों। डार्क एनर्जी क्या है? इसकी प्रकृति क्या है? क्या ये हमेशा ऐसी ही रहेगी? इन सवालों के जवाब भविष्य की खोजों पर निर्भर करते हैं। लेकिन ये फैलाव और बिग बैंग की कहानी हमें ये जरूर बताती है कि हमारा यूनिवर्स स्थिर और शाश्वत नहीं है। इसका एक इतिहास है, एक शुरुआत है, और शायद एक अंत भी। ये लगातार बदल रहा है, विकसित हो रहा है। लेकिन जब हम बिग बैंग के बिल्कुल शुरुआती क्षणों के बारे में सोचते हैं, या जब हम ब्लैक होल के अंदर की बात करते हैं, तो जनरल रिलेटिविटी अकेले काफी नहीं होती। वहाँ हमें क्वांटम मैकेनिक्स की जरूरत प़डती है। क्वांटम मैकेनिक्स, जो बहुत छोटी चीजों की दुनिया का वर्णन करती है, वो अपने आप में बहुत अजीब और अनिश्चित है। तो क्या होता है जब जनरल रिलेटिविटी का विशाल ब्रह्मांड क्वांटम मैकेनिक्स की अनिश्चित दुनिया से मिलता है? यहीं से कहानी और भी दिलचस्प हो जाती है। क्या आप जानना चाहेंगे कि क्वांटम मैकेनिक्स कैसे हमारी वास्तविकता की समझ को चुनौती देती है? अनिश्चितता का सिद्धांत क्या है और ये यूनिवर्स के बारे में हमें क्या बताता है? इन सवालों के जवाब छुपे हैं अगले अध्याय में। तो मिलते हैं ओडियोबुक Legends के अगले हिस्से में, जहाँ हम क्वांटम दुनिया के रहस्यों को खोलने की कोशिश करेंगे! अध्याय नंबर 4: अनिश्चितता का सिद्धांत। पिछले अध्याय में हमने यूनिवर्स के फैलाव और बिग बैंग की कहानी सुनी। हमने जाना कि कैसे हबल की खोज ने हमें बताया कि हमारा यूनिवर्स स्थिर नहीं, बल्कि फैल रहा है, और ये फैलाव हमें यूनिवर्स की एक गर्म और घनी शुरुआत तक ले गया। हमने डार्क मैटर और डार्क एनर्जी जैसे रहस्यों के बारे में भी बात की। ये सब बातें थीं बहुत ब़डी स्केल की – गैलेक्सियों की, यूनिवर्स की। अब हम अपनी यात्रा का रुख मोड़ने वाले हैं और जाएंगे बहुत ही छोटी स्केल पर – एटम और उसके अंदर के कणों की दुनिया में। ये है क्वांटम मैकेनिक्स (Quantum Mechanics) का दायरा। और यकीन मानिए, ये दुनिया उतनी ही, बल्कि शायद उससे भी ज्यादा अजीब और रहस्यमयी है जितनी कि ब्रह्मांड की विशालता। बीसवीं सदी की शुरुआत में, जब आइंस्टीन रिलेटिविटी पर काम कर रहे थे, उसी समय कुछ और वैज्ञानिक एक अलग तरह की पहेली सुलझाने में लगे थे। वो समझने की कोशिश कर रहे थे कि एटम कैसे काम करते हैं, और रोशनी (light) और पदार्थ (matter) की प्रकृति क्या है। उस समय तक माना जाता था कि एटम सौर मंडल की तरह होते हैं – बीच में एक भारी नाभिक (nucleus) और उसके चारों तरफ इलेक्ट्रॉन ग्रहों की तरह घूमते हैं। और रोशनी को एक तरंग (wave) माना जाता था। लेकिन इस मॉडल में कुछ समस्याएं थीं। क्लासिकल फिजिक्स के अनुसार, घूमता हुआ इलेक्ट्रॉन लगातार ऊर्जा खोएगा और जल्द ही नाभिक में गिर जाएगा। पर ऐसा होता नहीं है, एटम तो स्थिर होते हैं। और कुछ प्रयोगों के नतीजे ऐसे आ रहे थे जिन्हें तरंग वाले मॉडल से समझाया नहीं जा सकता था। जैसे कि 'ब्लैकबॉडी रेडिएशन' (Blackbody radiation) की पहेली। जब किसी चीज को गर्म किया जाता है, तो वो रोशनी छोड़ती है। क्लासिकल फिजिक्स भविष्यवाणी करती थी कि गर्म चीज हर फ्रीक्वेंसी की रोशनी छो़डेगी, और छोटी वेवलेंथ (ऊँची फ्रीक्वेंसी) वाली रोशनी की मात्रा अनंत हो जानी चाहिए! ये जाहिर तौर पर गलत था। 1900 में, जर्मन भौतिक विज्ञानी मैक्स प्लैंक (Max Planck) ने एक क्रांतिकारी आइडिया पेश किया। उन्होंने कहा कि ऊर्जा तरंगों की तरह लगातार नहीं, बल्कि छोटे-छोटे पैकेट या 'क्वांटा' (quanta) के रूप में आती-जाती है। हर क्वांटा की ऊर्जा उसकी फ्रीक्वेंसी पर निर्भर करती है (E=hf, जहाँ h प्लैंक कांस्टेंट है)। प्लैंक खुद भी अपने इस आइडिया से पूरी तरह सहमत नहीं थे, उन्हें ये बस एक गणितीय चाल लगी। लेकिन इसने ब्लैकबॉडी रेडिएशन की समस्या को हल कर दिया। फिर 1905 में, आइंस्टीन (जी हाँ, वही आइंस्टीन!) ने प्लैंक के आइडिया का इस्तेमाल 'फोटोइलेक्ट्रिक इफेक्ट' (Photoelectric effect) को समझाने के लिए किया। इस इफेक्ट में, जब किसी धातु पर रोशनी प़डती है, तो उससे इलेक्ट्रॉन निकलते हैं। आइंस्टीन ने कहा कि रोशनी असल में तरंग ही नहीं, बल्कि कणों की तरह भी व्यवहार करती है। इन कणों को उन्होंने 'फोटॉन' (photon) कहा, और हर फोटॉन की ऊर्जा प्लैंक के फॉर्मूले (E=hf) के अनुसार होती है। आइंस्टीन के इस काम ने साबित किया कि प्रकाश में तरंग (wave) और कण (particle) दोनों के गुण होते हैं – इसे 'वेव-पार्टिकल डुएलिटी' (Wave-particle duality) कहा जाता है। इसके बाद, डेनिश भौतिक विज्ञानी नील्स बोर (Niels Bohr) ने 1913 में एटम का एक नया मॉडल पेश किया। उन्होंने कहा कि इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों तरफ किसी भी ऑर्बिट में नहीं घूम सकते, बल्कि सिर्फ कुछ खास ऑर्बिट में ही घूम सकते हैं, जिनकी ऊर्जा निश्चित होती है। जब इलेक्ट्रॉन एक ऑर्बिट से दूसरे कम ऊर्जा वाले ऑर्बिट में कूदता है, तब वो एक फोटॉन छोड़ता है, जिसकी ऊर्जा दोनों ऑर्बिट की ऊर्जा के अंतर के बराबर होती है। ये मॉडल हाइड्रोजन एटम के स्पेक्ट्रम को समझाने में कामयाब रहा, लेकिन ये अभी भी पूरी तरह संतोषजनक नहीं था। ये नियम आए कहाँ से थे? असली क्रांति आई 1920 के दशक में, जब वर्नर हाइजेनबर्ग (Werner Heisenberg), इरविन श्रोडिंगर (Erwin Schrödinger), पॉल डिराक (Paul Dirac) और कई अन्य वैज्ञानिकों ने मिलकर क्वांटम मैकेनिक्स की गणितीय नींव रखी। श्रोडिंगर ने एक समीकरण (Schrödinger equation) दिया जो बताता था कि किसी कण (जैसे इलेक्ट्रॉन) की अवस्था समय के साथ कैसे बदलती है। लेकिन ये अवस्था क्या थी? ये कोई निश्चित पोजीशन या गति नहीं थी, बल्कि एक 'वेव फंक्शन' (wave function) था। ये वेव फंक्शन बताता था कि किसी जगह पर कण के पाए जाने की संभावना (probability) कितनी है। हाइजेनबर्ग ने मैट्रिक्स मैकेनिक्स (matrix mechanics) विकसित की, जो एक अलग गणितीय तरीका था, लेकिन उसी नतीजे पर पहुँचता था। और यहीं से क्वांटम मैकेनिक्स की सबसे अजीब बात सामने आई, जिसे हाइजेनबर्ग ने 1927 में 'अनिश्चितता का सिद्धांत' (Uncertainty Principle) के रूप में पेश किया। हाइजेनबर्ग ने दिखाया कि आप किसी कण की कुछ खास जोड़ों वाली प्रॉपर्टीज (जैसे पोजीशन और मोमेंटम यानी संवेग) को एक साथ पूरी सटीकता से नहीं जान सकते! अगर आप किसी कण की पोजीशन बिल्कुल ठीक-ठीक मापने की कोशिश करेंगे, तो उसकी मोमेंटम (यानी गति और दिशा) में अनिश्चितता बढ़ जाएगी। और अगर आप उसका मोमेंटम बिल्कुल सटीक मापेंगे, तो आपको उसकी पोजीशन का कुछ पता नहीं रहेगा। ये सिर्फ हमारे मापने के यंत्रों की कमी नहीं है, बल्कि ये प्रकृति का एक fondamental (बुनियादी) नियम है! एक कण की निश्चित पोजीशन और निश्चित मोमेंटम एक ही समय पर होते ही नहीं हैं! इसे समझने के लिए एक उदाहरण सोचिए। मान लीजिए आप एक इलेक्ट्रॉन की पोजीशन देखना चाहते हैं। देखने के लिए आपको उस पर रोशनी डालनी होगी, यानी फोटॉन फेंकने होंगे। लेकिन इलेक्ट्रॉन इतना छोटा है कि फोटॉन के टकराने से उसकी गति (मोमेंटम) बदल जाएगी। अगर आप उसकी पोजीशन बहुत सटीक देखना चाहते हैं, तो आपको छोटी वेवलेंथ वाले (यानी ज्यादा ऊर्जा वाले) फोटॉन का इस्तेमाल करना होगा। लेकिन ज्यादा ऊर्जा वाला फोटॉन इलेक्ट्रॉन की गति को और ज्यादा बदल देगा, जिससे मोमेंटम में अनिश्चितता बढ़ जाएगी। अगर आप कम ऊर्जा वाले फोटॉन का इस्तेमाल करते हैं (ताकि गति कम बदले), तो उसकी वेवलेंथ लंबी होगी, और आप पोजीशन ठीक से नहीं माप पाएंगे। तो आप एक चीज को सटीक करने की कोशिश करते हैं, तो दूसरी अनिश्चित हो जाती है। हाइजेनबर्ग ने इसे गणितीय रूप में व्यक्त किया: (पोजीशन में अनिश्चितता) x (मोमेंटम में अनिश्चितता) ≥ (प्लांक कांस्टेंट / 4π)। यानी इन दोनों अनिश्चितताओं का गुणनफल कभी भी शून्य नहीं हो सकता, हमेशा एक न्यूनतम मान से ज्यादा या बराबर ही रहेगा। अनिश्चितता का सिद्धांत सिर्फ पोजीशन और मोमेंटम पर ही लागू नहीं होता, बल्कि ऊर्जा और समय जैसी चीजों के जोड़ों पर भी लागू होता है। आप किसी घटना की ऊर्जा और वो कितने समय तक चली, इन दोनों को एक साथ पूरी सटीकता से नहीं जान सकते। इसका एक बहुत अजीब नतीजा ये निकलता है कि खाली स्पेस असल में खाली नहीं है! अनिश्चितता सिद्धांत के कारण, बहुत छोटे समय के लिए ऊर्जा उधार ली जा सकती है, जिससे कणों के जोड़े (particle-antiparticle pairs) अचानक प्रकट हो सकते हैं और फिर तुरंत एक-दूसरे को खत्म करके गायब हो सकते हैं! इन्हें 'वर्चुअल पार्टिकल्स' (virtual particles) कहा जाता है। ये वर्चुअल पार्टिकल स्पेस को एक उबलते हुए सूप की तरह बना देते हैं, जिसमें चीजें लगातार बन और मिट रही हैं। सुनने में साइंस फिक्शन जैसा लगता है, है ना? पर इनके असर को प्रयोगों में मापा गया है! अनिश्चितता के सिद्धांत ने नियतिवाद (determinism) के विचार पर गहरी चोट की। न्यूटन की दुनिया में, अगर हमें किसी समय पर सभी कणों की पोजीशन और मोमेंटम पता हो, तो हम उनका पूरा भविष्य और भूतकाल जान सकते थे। लेकिन क्वांटम मैकेनिक्स कहती है कि हम शुरुआत में ही पोजीशन और मोमेंटम दोनों को एक साथ सटीक रूप से जान ही नहीं सकते! तो भविष्य की भविष्यवाणी भी पूरी सटीकता से नहीं की जा सकती। हम सिर्फ संभावनाओं (probabilities) के बारे में बात कर सकते हैं। क्वांटम मैकेनिक्स हमें बताती है कि अगर आप एक प्रयोग को बार-बार दोहराएंगे, तो आपको क्या-क्या नतीजे मिल सकते हैं और उनकी कितनी संभावना है, लेकिन ये नहीं बता सकती कि किसी एक खास बार में कौन सा नतीजा मिलेगा। आइंस्टीन इस विचार से बहुत असहज थे। उनका मशहूर कथन था, "ईश्वर पासे नहीं फेंकता" ("God does not play dice")। उन्हें लगता था कि क्वांटम मैकेनिक्स अधूरी है, और इसके पीछे कोई गहरी, नियतिवादी हकीकत छिपी होनी चाहिए (जिसे हिडन वैरिएबल्स कहा गया)। लेकिन अब तक के सारे प्रयोग क्वांटम मैकेनिक्स की भविष्यवाणियों का ही समर्थन करते हैं, और हिडन वैरिएबल्स का कोई सबूत नहीं मिला है। ऐसा लगता है कि अनिश्चितता और संभाव्यता हमारे यूनिवर्स के ताने-बाने का ही हिस्सा हैं। क्वांटम मैकेनिक्स का एक और बहुत अजीब पहलू है 'वेव फंक्शन कोलैप्स' (wave function collapse) या 'मेजरमेंट प्रॉब्लम' (measurement problem)। जैसा कि हमने कहा, श्रोडिंगर का समीकरण बताता है कि कण एक वेव फंक्शन द्वारा वर्णित होता है, जो उसकी सभी संभावित अवस्थाओं (जैसे अलग-अलग पोजीशन या स्पिन) का एक मिश्रण (superposition) होता है। कण एक ही समय पर कई अवस्थाओं में होता है! लेकिन जैसे ही हम उसे मापने (observe or measure) की कोशिश करते हैं, वेव फंक्शन 'कोलैप्स' हो जाता है, और कण किसी एक निश्चित अवस्था में पाया जाता है। सवाल ये है कि ये कोलैप्स क्यों और कैसे होता है? मापन का क्या मतलब है? क्या इसके लिए किसी चेतना (consciousness) की जरूरत है? या सिर्फ किसी मैक्रोस्कोपिक यंत्र से इंटरैक्शन ही काफी है? ये क्वांटम मैकेनिक्स के सबसे गहरे और अनसुलझे सवालों में से एक है। इस पहेली को समझाने के लिए कई व्याख्याएं (interpretations) दी गई हैं। सबसे आम है 'कोपेनहेगन इंटरप्रिटेशन' (Copenhagen Interpretation), जिसे बोर और हाइजेनबर्ग ने विकसित किया। ये कहती है कि हमें बस वेव फंक्शन कोलैप्स को स्वीकार कर लेना चाहिए, और ये सवाल नहीं पूछना चाहिए कि मापने से पहले कण 'वास्तव' में कहाँ था। भौतिकी का काम ये बताना है कि हम क्या माप सकते हैं, न कि ये कि 'वास्तविकता' क्या है। एक और प्रसिद्ध व्याख्या है ह्यू एवरेट (Hugh Everett) की 'मेनी-वर्ल्ड्स इंटरप्रिटेशन' (Many-Worlds Interpretation)। ये कहती है कि वेव फंक्शन कभी कोलैप्स होता ही नहीं! जब भी कोई माप लिया जाता है जिससे कई नतीजे संभव हों, तो यूनिवर्स कई शाखाओं (branches) में बंट जाता है। हर शाखा में एक नतीजा हकीकत बनता है। यानी एक यूनिवर्स में कण पोजीशन A पर मिला, दूसरे में पोजीशन B पर, और दोनों ही यूनिवर्स असली हैं! ये सुनने में बहुत ही अजीब लगता है, लेकिन ये गणितीय रूप से संभव है और मेजरमेंट प्रॉब्लम से बचाता है। हालांकि इसे साबित करना लगभग नामुमकिन है। क्वांटम मैकेनिक्स की इन अजीब बातों के बावजूद, ये इतिहास की सबसे सफल वैज्ञानिक थ्योरीज में से एक है। इसने एटम, मॉलिक्यूल, केमिस्ट्री, सॉलिड स्टेट फिजिक्स (जिससे ट्रांजिस्टर और कंप्यूटर चिप्स बने), न्यूक्लियर फिजिक्स, पार्टिकल फिजिक्स – इन सब की हमारी समझ को आधार दिया है। लेजर, एमआरआई मशीन, इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप, क्वांटम कंप्यूटिंग – ये सब क्वांटम मैकेनिक्स के सिद्धांतों पर ही आधारित हैं। तो ये सिर्फ दार्शनिक बातें नहीं हैं, बल्कि टेक्नोलॉजी की नींव भी हैं। स्टीफन हॉकिंग के काम में क्वांटम मैकेनिक्स का बहुत महत्व है, खासकर जब वो ब्लैक होल और यूनिवर्स की शुरुआत जैसी极端 (चरम) स्थितियों का अध्ययन करते हैं। जैसा कि हमने पहले कहा, जनरल रिलेटिविटी बहुत ब़डी चीजों को संभालती है, और क्वांटम मैकेनिक्स बहुत छोटी चीजों को। लेकिन ब्लैक होल के केंद्र (सिंगुलैरिटी) में या बिग बैंग के समय, गुरुत्वाकर्षण बहुत मजबूत होता है और स्केल बहुत छोटा होता है। इन जगहों पर दोनों थ्योरीज की जरूरत प़डती है, लेकिन वो आपस में मेल नहीं खातीं। इसी विरोधाभास को हल करने की कोशिश हॉकिंग के काम का एक मुख्य हिस्सा थी। अनिश्चितता का सिद्धांत यहाँ एक खास भूमिका निभाता है। ये सिंगुलैरिटी (singularity) के विचार को ही थो़डा बदल देता है। जनरल रिलेटिविटी के अनुसार, ब्लैक होल के केंद्र में या बिग बैंग के समय, घनत्व और स्पेस-टाइम का कर्वेचर अनंत (infinite) हो जाता है। लेकिन क्वांटम मैकेनिक्स कहती है कि हम पोजीशन को असीमित सटीकता से नहीं जान सकते, तो शायद ये अनंत घनत्व वाले बिंदु असल में होते ही न हों? शायद क्वांटम प्रभाव गुरुत्वाकर्षण को अनंत होने से रोकते हों? हॉकिंग ने दिखाया कि जब क्वांटम प्रभावों को ब्लैक होल के पास शामिल किया जाता है, तो कुछ चौंकाने वाले नतीजे निकलते हैं, जैसे कि ब्लैक होल पूरी तरह काले नहीं होते! लेकिन ये कहानी है अगले अध्यायों की। फिलहाल, हमने क्वांटम मैकेनिक्स की अजीब दुनिया में गोता लगाया है। हमने वेव-पार्टिकल डुएलिटी, क्वांटाइजेशन, अनिश्चितता सिद्धांत, और मेजरमेंट प्रॉब्लम जैसी बातों को छुआ है। ये सिद्धांत हमें बताते हैं कि वास्तविकता हमारी सहज समझ से कहीं ज्यादा अजीब, अनिश्चित और संभावनाओं से भरी हुई है। इसने हमें कणों की दुनिया को समझने का एक शक्तिशाली टूल दिया है, लेकिन साथ ही कुछ गहरे दार्शनिक सवाल भी खडे किए हैं। लेकिन कणों की ये दुनिया है कैसी? कौन-कौन से मूल कण (elementary particles) हैं जिनसे मिलकर सबकुछ बना है? और कौन सी शक्तियाँ (forces) हैं जो इन कणों के बीच काम करती हैं और यूनिवर्स को आकार देती हैं? क्या इन सभी कणों और शक्तियों को एक ही थ्योरी में समझाया जा सकता है? इन सवालों का जवाब हमें मिलेगा पार्टिकल फिजिक्स के 'स्टैंडर्ड मॉडल' (Standard Model) में, जिसे हम अगले अध्याय में खंगालेंगे। क्या आप तैयार हैं यूनिवर्स के बिल्डिंग ब्लॉक्स और उन्हें जोड़ने वाले गोंद के बारे में जानने के लिए? तो जुड़े रहिए ओडियोबुक Legends के साथ! अध्याय नंबर 5: मूल कण और प्रकृति की शक्तियाँ। पिछले अध्याय में हमने क्वांटम मैकेनिक्स की अनिश्चित और संभावनाओं से भरी दुनिया की सैर की। हमने जाना कि कैसे अनिश्चितता का सिद्धांत हमारी वास्तविकता की समझ को बदल देता है और कैसे कण तरंग और कण दोनों की तरह व्यवहार कर सकते हैं। अब सवाल उठता है कि ये कण हैं कौन? जिनसे मिलकर ये सारा ब्रह्मांड बना है – आप, मैं, ये धरती, तारे, गैलेक्सियां – इन सबके सबसे बुनियादी बिल्डिंग ब्लॉक्स क्या हैं? और वो कौन सी गोंद (glue) है जो इन्हें आपस में जोड़कर रखती है? इन सवालों का जवाब हमें मिलता है पार्टिकल फिजिक्स के 'स्टैंडर्ड मॉडल' (Standard Model) में। ये मॉडल बीसवीं सदी के उत्तरार्ध में विकसित हुआ और ये अब तक का हमारा सबसे सफल प्रयास है ये समझाने का कि पदार्थ किससे बना है और वो कैसे इंटरैक्ट करता है। शुरुआत में, लोगों को लगता था कि एटम ही सबसे छोटे कण हैं (एटम का मतलब ही होता है 'जिसे काटा न जा सके')। फिर पता चला कि एटम के अंदर भी इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रॉन होते हैं। प्रोटॉन और न्यूट्रॉन नाभिक (nucleus) में एक साथ बंधे होते हैं और इलेक्ट्रॉन उनके चारों तरफ घूमते हैं। काफी समय तक इन्हें ही मूल कण माना जाता रहा। लेकिन 1960 के दशक में, जब वैज्ञानिकों ने पार्टिकल एक्सेलरेटर (particle accelerators) में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन को बहुत तेज गति से आपस में टकराया, तो उन्हें पता चला कि प्रोटॉन और न्यूट्रॉन भी मूल कण नहीं हैं! वो और भी छोटे कणों से मिलकर बने हैं, जिन्हें मरे गेल-मान (Murray Gell-Mann) ने 'क्वार्क' (Quark) नाम दिया (ये नाम जेम्स जॉयस की किताब 'फिननेगन्स वेक' से लिया गया था)। स्टैंडर्ड मॉडल के अनुसार, पदार्थ बनाने वाले मूल कण दो तरह के होते हैं: क्वार्क (Quarks) और लेप्टॉन (Leptons)। और ये कण बारह तरह के होते हैं, जिन्हें तीन 'पीढ़ियों' (generations) में बांटा गया है। पहली पीढ़ी में वो कण आते हैं जिनसे हमारे आसपास का सारा सामान्य पदार्थ बना है। इसमें दो तरह के क्वार्क हैं: 'अप' क्वार्क (up quark) और 'डाउन' क्वार्क (down quark)। एक प्रोटॉन दो अप क्वार्क और एक डाउन क्वार्क से मिलकर बनता है, जबकि एक न्यूट्रॉन एक अप क्वार्क और दो डाउन क्वार्क से मिलकर बनता है। पहली पीढ़ी में दो लेप्टॉन भी हैं: 'इलेक्ट्रॉन' (electron), जो एटम में नाभिक के चारों तरफ पाया जाता है, और 'इलेक्ट्रॉन न्यूट्रीनो' (electron neutrino), एक बहुत ही हल्का और मुश्किल से इंटरैक्ट करने वाला कण, जो न्यूक्लियर रिएक्शन में निकलता है। तो बस इन चार कणों – अप क्वार्क, डाउन क्वार्क, इलेक्ट्रॉन और इलेक्ट्रॉन न्यूट्रीनो – से ही वो सबकुछ बन जाता है जिसे हम रोज देखते और महसूस करते हैं! कमाल की बात है, है ना? लेकिन प्रकृति यहीं नहीं रुकती। स्टैंडर्ड मॉडल बताता है कि कणों की दो और पीढ़ियां हैं, जो पहली पीढ़ी की नकल जैसी ही हैं, बस उनके कण ज्यादा भारी होते हैं। दूसरी पीढ़ी में दो क्वार्क हैं: 'चार्म' क्वार्क (charm quark) और 'स्ट्रेंज' क्वार्क (strange quark)। और दो लेप्टॉन हैं: 'म्यूऑन' (muon), जो इलेक्ट्रॉन जैसा ही है पर उससे लगभग 200 गुना भारी है, और 'म्यूऑन न्यूट्रीनो' (muon neutrino)। तीसरी पीढ़ी में फिर से दो क्वार्क हैं: 'टॉप' क्वार्क (top quark), जो सबसे भारी क्वार्क है, और 'बॉटम' क्वार्क (bottom quark) (इन्हें पहले ट्रुथ और ब्यूटी कहा जाता था!)। और दो लेप्टॉन हैं: 'टाऊ' (tau), जो इलेक्ट्रॉन से लगभग 3500 गुना भारी है, और 'टाऊ न्यूट्रीनो' (tau neutrino)। ये दूसरी और तीसरी पीढ़ी के कण अस्थिर (unstable) होते हैं और बहुत जल्दी क्षय (decay) होकर पहली पीढ़ी के हल्के कणों में बदल जाते हैं। इसीलिए हमारे आसपास की दुनिया में ये आमतौर पर नहीं पाए जाते। इन्हें सिर्फ पार्टिकल एक्सेलरेटर में उच्च ऊर्जा पर होने वाले टकरावों में या कॉस्मिक किरणों (cosmic rays) के वायुमंडल से टकराने पर ही बनाया जा सकता है। अब सवाल उठता है कि प्रकृति को इन भारी, अस्थिर कणों की तीन पीढ़ियों की क्या जरूरत थी? ये अभी भी एक रहस्य है। तो ये हो गए बारह मूल कण जो पदार्थ बनाते हैं (6 क्वार्क + 6 लेप्टॉन)। लेकिन ये कण आपस में इंटरैक्ट कैसे करते हैं? इन्हें एक साथ बांधकर कौन रखता है? यहाँ आती हैं प्रकृति की चार मूल शक्तियाँ (fundamental forces)। स्टैंडर्ड मॉडल इनमें से तीन शक्तियों का वर्णन करता है: 1. **विद्युतचुंबकीय बल (Electromagnetic Force):** ये बल चार्ज वाले कणों के बीच काम करता है। ये इलेक्ट्रॉनों को नाभिक के चारों तरफ बांधकर एटम बनाता है, और एटमों को जोड़कर मॉलिक्यूल बनाता है। यही बल हमें चीजों को छूने से रोकता है (असल में एटमों के इलेक्ट्रॉन क्लाउड एक-दूसरे को धकेलते हैं)। ये रोशनी (फोटॉन) के रूप में भी प्रकट होता है। इस बल का वाहक कण (force carrier particle) 'फोटॉन' (Photon) है। फोटॉन का कोई द्रव्यमान नहीं होता और ये प्रकाश की गति से चलता है। इसकी रेंज अनंत होती है। 2. **प्रबल नाभिकीय बल (Strong Nuclear Force):** ये बल क्वार्कों को आपस में बांधकर प्रोटॉन और न्यूट्रॉन बनाता है, और फिर प्रोटॉनों और न्यूट्रॉनों को एक साथ बांधकर एटम का नाभिक बनाता है। ये बहुत ही शक्तिशाली बल है (चारों में सबसे शक्तिशाली), लेकिन इसकी रेंज बहुत कम होती है, सिर्फ नाभिक के आकार जितनी। अगर ये बल न होता, तो नाभिक बन ही नहीं पाते, क्योंकि प्रोटॉनों के बीच का विद्युतचुंबकीय प्रतिकर्षण (repulsion) उन्हें अलग कर देता। इस बल का वाहक कण 'ग्लूऑन' (Gluon) है। ग्लूऑन क्वार्कों के बीच 'चिपकने' का काम करते हैं। आठ तरह के ग्लूऑन होते हैं। 3. **दुर्बल नाभिकीय बल (Weak Nuclear Force):** ये बल रेडियोधर्मी क्षय (radioactive decay) के लिए जिम्मेदार है, जैसे जब एक न्यूट्रॉन एक प्रोटॉन, एक इलेक्ट्रॉन और एक एंटीन्यूट्रीनो में बदलता है। सूरज के अंदर होने वाली न्यूक्लियर फ्यूजन प्रक्रियाओं में भी इसकी भूमिका होती है। ये बल प्रबल नाभिकीय बल और विद्युतचुंबकीय बल की तुलना में काफी कमजोर होता है और इसकी रेंज और भी कम होती है। इसके वाहक कण तीन होते हैं: W+, W-, और Z बोसॉन (Bosons)। ये कण भारी होते हैं, इसीलिए इनकी रेंज बहुत कम होती है। तो स्टैंडर्ड मॉडल हमें बताता है कि बारह तरह के पदार्थ कण (फर्मिऑन - Fermions कहलाते हैं, क्योंकि ये फर्मी-डिराक स्टैटिस्टिक्स मानते हैं) हैं, और तीन तरह की शक्तियाँ हैं, जिन्हें वाहक कणों (बोसॉन - Bosons कहलाते हैं, क्योंकि ये बोस-आइंस्टीन स्टैटिस्टिक्स मानते हैं) के आदान-प्रदान के जरिए समझाया जाता है। लेकिन इस तस्वीर में एक चौथी मूल शक्ति गायब है – **गुरुत्वाकर्षण (Gravity)**! जी हाँ, स्टैंडर्ड मॉडल गुरुत्वाकर्षण का वर्णन नहीं करता है। गुरुत्वाकर्षण बाकी तीन बलों की तुलना में बहुत ही ज्यादा कमजोर है, खासकर कणों के स्तर पर। उदाहरण के लिए, दो प्रोटॉनों के बीच विद्युतचुंबकीय प्रतिकर्षण उनके बीच के गुरुत्वाकर्षण खिंचाव से खरबों-खरबों गुना ज्यादा मजबूत होता है! इसीलिए पार्टिकल फिजिक्स में गुरुत्वाकर्षण को अक्सर नजरअंदाज किया जा सकता है। लेकिन ब्रह्मांडीय पैमाने पर, गुरुत्वाकर्षण सबसे महत्वपूर्ण बल बन जाता है, क्योंकि ये हमेशा आकर्षक होता है और इसकी रेंज अनंत होती है। तारों, ग्रहों और गैलेक्सियों को आकार देने वाला यही बल है। गुरुत्वाकर्षण को जनरल रिलेटिविटी द्वारा स्पेस-टाइम के कर्वेचर के रूप में समझाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि गुरुत्वाकर्षण का भी एक वाहक कण होना चाहिए, जिसे 'ग्रेविटॉन' (Graviton) कहते हैं, लेकिन इसे अभी तक खोजा नहीं जा सका है। स्टैंडर्ड मॉडल और जनरल रिलेटिविटी को एक साथ लाना, यानी क्वांटम ग्रेविटी की थ्योरी खोजना, आधुनिक भौतिकी की सबसे ब़डी चुनौती है, जैसा हमने पहले भी जिक्र किया था। स्टैंडर्ड मॉडल में एक और महत्वपूर्ण कण है, जिसके बिना ये मॉडल अधूरा था – 'हिग्स बोसॉन' (Higgs Boson)। स्टैंडर्ड मॉडल के शुरुआती संस्करणों में एक समस्या थी: ये भविष्यवाणी करता था कि सभी मूल कण (क्वार्क, लेप्टॉन, और W/Z बोसॉन) द्रव्यमान रहित (massless) होने चाहिए! लेकिन हम जानते हैं कि ऐसा नहीं है, इलेक्ट्रॉन का द्रव्यमान होता है, क्वार्क का होता है, W और Z बोसॉन बहुत भारी होते हैं। इस समस्या को हल करने के लिए, 1964 में पीटर हिग्स (Peter Higgs) और कई अन्य वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से एक मैकेनिज्म प्रस्तावित किया, जिसे 'हिग्स मैकेनिज्म' (Higgs Mechanism) कहा जाता है। उन्होंने कहा कि पूरे स्पेस में एक अदृश्य फील्ड (field) फैला हुआ है, जिसे 'हिग्स फील्ड' (Higgs Field) कहते हैं। जब मूल कण इस फील्ड से गुजरते हैं, तो वो इसके साथ इंटरैक्ट करते हैं। जो कण जितना ज्यादा इंटरैक्ट करता है, उसे उतनी ही ज्यादा 'रुकावट' महसूस होती है, और यही रुकावट हमें उस कण के द्रव्यमान (mass) के रूप में दिखाई देती है! जो कण बिल्कुल इंटरैक्ट नहीं करते (जैसे फोटॉन और ग्लूऑन), वो द्रव्यमान रहित रहते हैं। इस हिग्स फील्ड से जुड़ा हुआ एक कण भी होना चाहिए, जिसे 'हिग्स बोसॉन' कहा गया। इस कण को खोजना स्टैंडर्ड मॉडल को पूरा करने के लिए बहुत जरूरी था। दशकों की खोज के बाद, आखिरकार 2012 में, सर्न (CERN) में स्थित लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर (Large Hadron Collider - LHC) के वैज्ञानिकों ने हिग्स बोसॉन की खोज की घोषणा की! ये एक बहुत ब़डी उपलब्धि थी और इसने स्टैंडर्ड मॉडल की पुष्टि की। पीटर हिग्स और फ्रांस्वा एंगलर्ट (François Englert) को इसके लिए 2013 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला। तो स्टैंडर्ड मॉडल अद्भुत रूप से सफल रहा है। ये बताता है कि सबकुछ सिर्फ कुछ मुट्ठी भर मूल कणों और तीन शक्तियों से बना है। इसकी भविष्यवाणियाँ प्रयोगों में अविश्वसनीय सटीकता से सही पाई गई हैं। लेकिन क्या ये अंतिम थ्योरी है? शायद नहीं। स्टैंडर्ड मॉडल में कुछ कमियाँ और अनसुलझे सवाल हैं। * ये गुरुत्वाकर्षण को शामिल नहीं करता। * ये डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के बारे में कुछ नहीं बताता, जो यूनिवर्स का 95% हिस्सा बनाते हैं। * ये नहीं समझाता कि कणों की तीन पीढ़ियां क्यों हैं, या उनके द्रव्यमान इतने अलग-अलग क्यों हैं। * न्यूट्रीनो के बारे में शुरुआती मॉडल मानता था कि उनका कोई द्रव्यमान नहीं होता, लेकिन प्रयोगों से पता चला है कि उनमें थो़डा सा द्रव्यमान होता है। इसे समझाने के लिए मॉडल में बदलाव की जरूरत है। * ये नहीं समझाता कि यूनिवर्स में पदार्थ (matter) एंटीमैटर (antimatter) से इतना ज्यादा क्यों है (बिग बैंग में दोनों बराबर मात्रा में बने होने चाहिए थे)। इन सवालों के जवाब के लिए, वैज्ञानिक स्टैंडर्ड मॉडल से आगे जाने वाली थ्योरीज पर काम कर रहे हैं, जैसे कि 'सुपरसिमेट्री' (Supersymmetry - SUSY), जो हर ज्ञात कण के लिए एक भारी 'सुपरपार्टनर' कण की भविष्यवाणी करती है, या 'स्ट्रिंग थ्योरी' (String Theory), जो मानती है कि मूल कण बिंदु जैसे नहीं, बल्कि एक-आयामी कंपित होते धागे (vibrating strings) हैं। ये थ्योरीज क्वांटम ग्रेविटी की समस्या को हल करने और स्टैंडर्ड मॉडल की कमियों को दूर करने की कोशिश करती हैं, लेकिन अभी तक इनका कोई प्रायोगिक सबूत नहीं मिला है। तो दोस्तों, स्टैंडर्ड मॉडल हमें यूनिवर्स के बिल्डिंग ब्लॉक्स और उन्हें जोड़ने वाले नियमों का एक शानदार नक्शा देता है। ये क्वार्क, लेप्टॉन, फोटॉन, ग्लूऑन, W/Z बोसॉन और हिग्स बोसॉन की एक जटिल लेकिन सुसंगत दुनिया है। इसने हमें पदार्थ और शक्तियों की एक गहरी समझ दी है। लेकिन ये नक्शा अभी भी पूरा नहीं है। कुछ हिस्से खाली हैं (जैसे डार्क मैटर, डार्क एनर्जी, ग्रेविटी), और कुछ हिस्सों को हम अभी तक पूरी तरह समझ नहीं पाए हैं (जैसे तीन पीढ़ियां क्यों?)। अब जब हमने पदार्थ के सबसे छोटे स्तर को देख लिया है, और यूनिवर्स के सबसे ब़डे स्तर (फैलाव) को भी देख लिया है, तो चलिए अब यूनिवर्स की कुछ सबसे अजीब और极端 (चरम) वस्तुओं की ओर चलते हैं – ब्लैक होल (Black Holes)। ये वो जगहें हैं जहाँ गुरुत्वाकर्षण इतना ज्यादा शक्तिशाली हो जाता है कि वो स्पेस-टाइम को अपने अंदर ही समेट लेता है, जहाँ स्टैंडर्ड मॉडल और जनरल रिलेटिविटी दोनों की सीमाएं सामने आ जाती हैं। ब्लैक होल क्या हैं? ये कैसे बनते हैं? क्या जो एक बार उनमें चला गया, वो कभी बाहर नहीं आ सकता? इन रहस्यमयी सवालों के जवाब हम खोजेंगे अगले अध्याय में। क्या आप अंतरिक्ष के इन दानवों का सामना करने के लिए तैयार हैं? तो बने रहिए ओडियोबुक Legends पर! अध्याय नंबर 6: ब्लैक होल: अंतरिक्ष के दानव। अब तक की हमारी यात्रा हमें यूनिवर्स की विशालता से लेकर कणों की सूक्ष्म दुनिया तक ले गई है। हमने आइंस्टीन की रिलेटिविटी, क्वांटम मैकेनिक्स की अनिश्चितता, यूनिवर्स के फैलाव और मूल कणों के स्टैंडर्ड मॉडल को समझा। अब हम एक ऐसी जगह जा रहे हैं जहाँ ये सारी चरम भौतिकी एक साथ मिलती है, जहाँ गुरुत्वाकर्षण का राज चलता है, और जहाँ स्पेस और टाइम खुद टूटते हुए लगते हैं – हम बात कर रहे हैं ब्लैक होल की। ये नाम सुनते ही हमारे दिमाग में एक ऐसी काली चीज़ की छवि आती है जो सब कुछ निगल लेती है, यहाँ तक कि रोशनी को भी। और काफी हद तक ये सही भी है। ब्लैक होल अंतरिक्ष की वो जगहें हैं जहाँ गुरुत्वाकर्षण इतना ज्यादा शक्तिशाली होता है कि उससे कुछ भी, यहाँ तक कि प्रकाश भी, बचकर बाहर नहीं निकल सकता। ब्लैक होल का आइडिया नया नहीं है। 1783 में ही, एक अंग्रेज पादरी और खगोलशास्त्री जॉन मिचेल (John Michell) ने न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत का उपयोग करके ये सोचा कि क्या कोई तारा इतना भारी और घना हो सकता है कि उसकी सतह से निकलने के लिए पलायन वेग (escape velocity) प्रकाश की गति से भी ज्यादा हो जाए? अगर ऐसा होता, तो उस तारे से निकलने वाली रोशनी भी वापस उसी पर गिर जाएगी, और वो तारा हमें दिखाई नहीं देगा – वो एक 'डार्क स्टार' (dark star) होगा। कुछ साल बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ पियरे-साइमन लाप्लास (Pierre-Simon Laplace) ने भी स्वतंत्र रूप से यही विचार प्रस्तुत किया। हालांकि, उन्नीसवीं सदी में जब प्रकाश को तरंग माना जाने लगा, तो ये आइडिया पीछे छूट गया, क्योंकि ये साफ नहीं था कि गुरुत्वाकर्षण तरंगों को कैसे प्रभावित करेगा। ब्लैक होल का आधुनिक सिद्धांत आइंस्टीन की जनरल थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी से निकलकर आया। जैसा कि हमने अध्याय 2 में देखा, जनरल रिलेटिविटी बताती है कि द्रव्यमान और ऊर्जा स्पेस-टाइम को मोड़ते हैं। 1915 में आइंस्टीन द्वारा अपनी थ्योरी प्रकाशित करने के कुछ ही महीनों बाद, जर्मन भौतिक विज्ञानी कार्ल श्वार्जस्चाइल्ड (Karl Schwarzschild) ने आइंस्टीन के समीकरणों का एक सटीक हल खोजा। ये हल एक अकेले, गोल, न घूमने वाले तारे के बाहर के स्पेस-टाइम का वर्णन करता था। लेकिन श्वार्जस्चाइल्ड के हल में एक अजीब बात थी। अगर तारे का सारा द्रव्यमान एक खास न्यूनतम दायरे के अंदर सिमट जाए, जिसे 'श्वार्जस्चाइल्ड रेडियस' (Schwarzschild radius) कहते हैं, तो स्पेस-टाइम का कर्वेचर अनंत हो जाएगा! इस दायरे के अंदर गुरुत्वाकर्षण इतना मजबूत होगा कि कुछ भी बाहर नहीं निकल सकेगा। श्वार्जस्चाइल्ड रेडियस पर एक काल्पनिक सतह बनती है, जिसे आज हम 'इवेंट होराइजन' (Event Horizon) यानी घटना क्षितिज कहते हैं। ये 'पॉइंट ऑफ नो रिटर्न' है। एक बार आप इवेंट होराइजन के अंदर चले गए, तो आप कभी बाहर नहीं आ सकते, क्योंकि बाहर निकलने के लिए आपको प्रकाश की गति से भी तेज चलना होगा, जो कि असंभव है। इवेंट होराइजन के अंदर क्या है? श्वार्जस्चाइल्ड के हल के अनुसार, सारा द्रव्यमान केंद्र में एक ही बिंदु पर सिमट जाता है, जहाँ घनत्व और स्पेस-टाइम का कर्वेचर अनंत हो जाता है। इस बिंदु को 'सिंगुलैरिटी' (Singularity) कहते हैं। ये वो जगह है जहाँ जनरल रिलेटिविटी के नियम टूट जाते हैं, काम करना बंद कर देते हैं। सिंगुलैरिटी पर क्या होता है, ये हम नहीं जानते। इसे समझने के लिए हमें क्वांटम ग्रेविटी की थ्योरी की जरूरत होगी, जो अभी हमारे पास नहीं है। शुरुआत में, आइंस्टीन समेत कई वैज्ञानिक सोचते थे कि सिंगुलैरिटी और इवेंट होराइजन जैसी चीजें सिर्फ गणितीय कलाकृतियाँ हैं, और असलियत में ऐसा कुछ नहीं होता होगा। उन्हें लगता था कि प्रकृति में कोई न कोई प्रक्रिया इन्हें बनने से रोक देगी। उदाहरण के लिए, जब कोई विशाल तारा अपनी जिंदगी के अंत में अपने ही गुरुत्वाकर्षण के कारण ढहना (collapse) शुरू करता है, तो क्या वो हमेशा ब्लैक होल ही बनाएगा? 1930 के दशक में, भारतीय भौतिक विज्ञानी सुब्रह्मण्यन चंद्रशेखर (Subrahmanyan Chandrasekhar) ने गणना करके बताया कि अगर तारे का बचा हुआ कोर (core) एक निश्चित सीमा (जिसे आज 'चंद्रशेखर लिमिट' कहते हैं, लगभग सूरज के द्रव्यमान का 1.4 गुना) से कम हो, तो इलेक्ट्रॉन डीजेनरेसी प्रेशर (electron degeneracy pressure – क्वांटम मैकेनिक्स का एक प्रभाव) गुरुत्वाकर्षण के खिंचाव को रोक लेगा और तारा एक 'व्हाइट ड्वार्फ' (white dwarf) यानी श्वेत वामन बनकर स्थिर हो जाएगा। लेकिन अगर कोर का द्रव्यमान चंद्रशेखर लिमिट से ज्यादा हो तो? तब गुरुत्वाकर्षण इतना मजबूत होगा कि इलेक्ट्रॉन डीजेनरेसी प्रेशर उसे रोक नहीं पाएगा। तारा और ढहेगा। इस मामले में, न्यूट्रॉन डीजेनरेसी प्रेशर (neutron degeneracy pressure) उसे रोक सकता है, और तारा एक 'न्यूट्रॉन स्टार' (neutron star) बन जाएगा – एक अविश्वसनीय रूप से घना पिंड, जिसका आकार सिर्फ एक शहर जितना होता है लेकिन द्रव्यमान सूरज से ज्यादा! न्यूट्रॉन स्टार भी बहुत अजीब चीजें हैं। लेकिन रॉबर्ट ओपेनहाइमर (J. Robert Oppenheimer) और उनके सहयोगियों ने 1939 में दिखाया कि अगर तारे का कोर और भी ज्यादा भारी हो (लगभग सूरज के द्रव्यमान का 3 गुना से ज्यादा, जिसे टॉल्मन-ओपेनहाइमर-वोल्कॉफ लिमिट कहते हैं), तो न्यूट्रॉन डीजेनरेसी प्रेशर भी गुरुत्वाकर्षण को रोक नहीं पाएगा। उस स्थिति में, तारे का ढहना रुकेगा नहीं, और वो अनंत रूप से ढहता चला जाएगा, स्पेस-टाइम में एक सिंगुलैरिटी बना देगा, और उसके चारों तरफ एक इवेंट होराइजन बन जाएगा – यानी एक ब्लैक होल बन जाएगा! तो ऐसा लगता है कि प्रकृति न सिर्फ ब्लैक होल बनने की इजाजत देती है, बल्कि विशाल तारों के लिए ये एक अवश्यंभावी अंत है। जब कोई बहुत विशाल तारा (सूरज से कई गुना ज्यादा भारी) अपना सारा ईंधन जला लेता है, तो उसकी कोर अपने ही वजन के नीचे ढह जाती है। बाहरी परतें एक जबरदस्त विस्फोट में उड़ जाती हैं, जिसे 'सुपरनोवा' (supernova) कहते हैं। अगर बचा हुआ कोर काफी भारी है, तो वो ढहकर एक ब्लैक होल बना देगा। ये 'स्टेलर मास ब्लैक होल' (stellar-mass black holes) कहलाते हैं, जिनका द्रव्यमान कुछ गुना से लेकर सूरज के द्रव्यमान का दर्जनों गुना तक हो सकता है। हमारी मिल्की वे गैलेक्सी में ही ऐसे लाखों ब्लैक होल बिखरे होने का अनुमान है। लेकिन ब्लैक होल सिर्फ तारों के मरने से ही नहीं बनते। गैलेक्सियों के केंद्रों में और भी विशाल ब्लैक होल पाए जाते हैं, जिन्हें 'सुपरमैसिव ब्लैक होल' (Supermassive Black Holes - SMBHs) कहते हैं। इनका द्रव्यमान सूरज के लाखों या अरबों गुना तक हो सकता है! हमारी अपनी मिल्की वे गैलेक्सी के केंद्र में भी एक सुपरमैसिव ब्लैक होल है, जिसका नाम सैजिटेरियस A* (Sagittarius A*) है, और इसका द्रव्यमान सूरज से लगभग 40 लाख गुना है। ये इतने विशाल ब्लैक होल कैसे बने, ये अभी भी पूरी तरह समझा नहीं गया है। शायद ये छोटे ब्लैक होल के आपस में मिलने से बने, या फिर शुरुआती यूनिवर्स में गैस के विशाल बादलों के सीधे ढहने से बने। ऐसा लगता है कि ज्यादातर ब़डी गैलेक्सियों के केंद्र में एक सुपरमैसिव ब्लैक होल होता है, और इन ब्लैक होल का विकास गैलेक्सी के विकास से जुड़ा हुआ है। तो ब्लैक होल असलियत में मौजूद हैं। लेकिन हम उन्हें देख तो सकते नहीं, क्योंकि उनसे रोशनी भी बाहर नहीं आ सकती। तो हमें कैसे पता चलता है कि वो वहाँ हैं? हम उन्हें सीधे नहीं, बल्कि उनके आसपास के माहौल पर प़डने वाले असर से पहचानते हैं। * **तारों की गति:** अगर किसी तारे या गैस के बादल को किसी अदृश्य चीज के चारों तरफ बहुत तेजी से घूमते हुए देखा जाए, तो वो अदृश्य चीज एक ब्लैक होल हो सकती है। सैजिटेरियस A* की खोज इसी तरह हुई – उसके आसपास के तारों की कक्षाओं (orbits) का दशकों तक अध्ययन करके। * **एक्रिशन डिस्क (Accretion Disk):** अगर किसी ब्लैक होल के पास कोई तारा या गैस का बादल आ जाए, तो ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण उसे अपनी ओर खींच लेता है। ये पदार्थ सीधे ब्लैक होल में नहीं गिरता, बल्कि उसके चारों तरफ एक डिस्क (disk) में घूमने लगता है, जिसे एक्रिशन डिस्क कहते हैं। इस डिस्क में पदार्थ इतनी तेजी से घूमता है और आपस में रग़ड खाता है कि वो बहुत ज्यादा गर्म हो जाता है (लाखों डिग्री सेल्सियस तक!) और भारी मात्रा में एक्स-रे (X-rays) और दूसरी रेडिएशन छोड़ता है। हम इन रेडिएशन को टेलीस्कोप से देख सकते हैं, और ये ब्लैक होल की मौजूदगी का एक मजबूत संकेत होता है। कई एक्स-रे बाइनरी सिस्टम (जहाँ एक तारा एक अदृश्य साथी का चक्कर लगाता है) में ऐसे ब्लैक होल पाए गए हैं। * **जेट्स (Jets):** कुछ एक्रिशन डिस्क वाले ब्लैक होल (खासकर सुपरमैसिव ब्लैक होल) अपने ध्रुवों (poles) से पदार्थ और ऊर्जा की दो शक्तिशाली धाराएं (jets) बाहर फेंकते हैं, जो लगभग प्रकाश की गति से चलती हैं। ये जेट्स कैसे बनते हैं, ये अभी भी पूरी तरह समझा नहीं गया है, लेकिन इसमें ब्लैक होल के घूमने और मैग्नेटिक फील्ड की भूमिका मानी जाती है। इन जेट्स को रेडियो टेलीस्कोप से देखा जा सकता है और ये भी ब्लैक होल की उपस्थिति का सबूत होते हैं। * **गुरुत्वाकर्षण लेंसिंग (Gravitational Lensing):** जनरल रिलेटिविटी के अनुसार, भारी चीजें अपने पीछे से आने वाली रोशनी को मोड़ देती हैं। ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण इतना मजबूत होता है कि वो अपने पीछे स्थित किसी दूर की गैलेक्सी या तारे की रोशनी को मोड़कर उसकी छवि को विकृत (distort) या मैग्नीफाई (magnify) कर सकता है। इस प्रभाव को गुरुत्वाकर्षण लेंसिंग कहते हैं, और ये भी ब्लैक होल को खोजने का एक तरीका है। * **ग्रेविटेशनल वेव्स (Gravitational Waves):** जैसा कि हमने पहले जिक्र किया, जब दो ब्लैक होल आपस में टकराकर मिलते हैं, तो वो स्पेस-टाइम में गुरुत्वाकर्षण तरंगें पैदा करते हैं। LIGO और Virgo जैसे डिटेक्टर इन तरंगों का पता लगा सकते हैं, और ये ब्लैक होल के विलय (merger) का सीधा सबूत होता है। 2015 में पहली बार ऐसी तरंगों का पता लगाया गया था, जो दो स्टेलर मास ब्लैक होल के टकराने से बनी थीं। और सबसे हालिया और शानदार उपलब्धि है ब्लैक होल की 'तस्वीर' लेना! 2019 में, इवेंट होराइजन टेलीस्कोप (Event Horizon Telescope - EHT) नाम के एक ग्लोबल प्रोजेक्ट ने मेसियर 87 (M87) नाम की एक विशाल गैलेक्सी के केंद्र में स्थित सुपरमैसिव ब्लैक होल के इवेंट होराइजन के आसपास की छाया (shadow) की पहली सीधी छवि जारी की। ये एक अद्भुत तकनीकी कमाल था, जिसमें दुनिया भर के कई रेडियो टेलीस्कोप को मिलाकर एक वर्चुअल टेलीस्कोप बनाया गया जिसका आकार पृथ्वी जितना था! ये छवि दिखाती है कि ब्लैक होल के चारों तरफ गर्म गैस घूम रही है, और बीच में एक काला क्षेत्र है – ब्लैक होल की छाया, जहाँ से कोई रोशनी नहीं आ रही। ये छवि आइंस्टीन की जनरल रिलेटिविटी की भविष्यवाणियों से बिल्कुल मेल खाती है। 2022 में, EHT ने हमारी अपनी गैलेक्सी के ब्लैक होल, सैजिटेरियस A*, की भी ऐसी ही छवि जारी की। तो ब्लैक होल अब सिर्फ थ्योरी नहीं हैं, बल्कि खगोलीय वास्तविकता हैं। वो यूनिवर्स के सबसे चरम गुरुत्वाकर्षण वाले पिंड हैं, जो तारों की मौत से बनते हैं और गैलेक्सियों के केंद्रों पर राज करते हैं। उनका इवेंट होराइजन एक ऐसी सीमा है जिसके पार क्या है, हम नहीं जानते। और उनका केंद्र, सिंगुलैरिटी, वो जगह है जहाँ हमारी भौतिकी के नियम जवाब दे जाते हैं। ब्लैक होल हमें स्पेस, टाइम और गुरुत्वाकर्षण की प्रकृति के बारे में बहुत कुछ सिखाते हैं। लेकिन क्या ये कहानी का अंत है? क्या इवेंट होराइजन वाकई एक तरफा रास्ता है? क्या जो कुछ भी ब्लैक होल में गिरता है, वो हमेशा के लिए खो जाता है? स्टीफन हॉकिंग ने इस सवाल पर बहुत काम किया, और उन्होंने क्वांटम मैकेनिक्स को ब्लैक होल की दुनिया में लाकर कुछ बेहद चौंकाने वाले नतीजे निकाले। उन्होंने दिखाया कि ब्लैक होल शायद उतने 'काले' न हों जितना हम सोचते हैं! क्या ब्लैक होल से भी कुछ बाहर आ सकता है? क्या उनमें समाई जानकारी हमेशा के लिए नष्ट हो जाती है? ये सवाल हमें हॉकिंग रेडिएशन और इन्फॉर्मेशन पैराडॉक्स की ओर ले जाते हैं, जिनके बारे में हम अगले अध्याय में बात करेंगे। क्या आप जानने के लिए उत्साहित हैं कि स्टीफन हॉकिंग ने ब्लैक होल के बारे में हमारी समझ को कैसे बदला? तो इंतजार कीजिए ओडियोबुक Legends के अगले रोमांचक अध्याय का! अध्याय नंबर 7: ब्लैक होल उतने काले नहीं। पिछले अध्याय में हमने ब्लैक होल की रहस्यमयी दुनिया में कदम रखा। हमने जाना कि ये कैसे बनते हैं, कितने प्रकार के होते हैं, और हमें इनके होने का पता कैसे चलता है। हमने इवेंट होराइजन और सिंगुलैरिटी जैसे कांसेप्ट को भी समझा। क्लासिकल जनरल रिलेटिविटी के अनुसार, ब्लैक होल पूरी तरह से काले होते हैं – उनके इवेंट होराइजन से कुछ भी बाहर नहीं निकल सकता, यहाँ तक कि रोशनी भी नहीं। एक बार कोई चीज़ या जानकारी इवेंट होराइजन के पार चली गई, तो वो हमेशा के लिए बाहरी दुनिया से कट जाती है, मानो यूनिवर्स के उस हिस्से से मिट गई हो। ये तस्वीर काफी निराशाजनक लगती है। लेकिन फिर आए स्टीफन हॉकिंग। 1970 के दशक की शुरुआत में, हॉकिंग ब्लैक होल के गणित का अध्ययन कर रहे थे, और उन्होंने सोचा कि क्या होता है जब क्वांटम मैकेनिक्स के प्रभावों को ब्लैक होल के पास, खासकर इवेंट होराइजन के करीब, शामिल किया जाए? याद कीजिए अध्याय 4 में हमने क्वांटम अनिश्चितता सिद्धांत की बात की थी, जिसके अनुसार खाली स्पेस भी पूरी तरह खाली नहीं होता, बल्कि उसमें लगातार 'वर्चुअल पार्टिकल' के जोड़े बनते और मिटते रहते हैं। ये कण-प्रतिकण (particle-antiparticle) जोड़े ऊर्जा से अचानक पैदा होते हैं और फिर तुरंत एक-दूसरे से टकराकर खत्म हो जाते हैं, आमतौर पर इतनी जल्दी कि हम उन्हें सीधे डिटेक्ट नहीं कर पाते। हॉकिंग ने तर्क दिया कि इवेंट होराइजन के ठीक बाहर क्या हो सकता है? मान लीजिए एक वर्चुअल कण-प्रतिकण का जोड़ा ठीक इवेंट होराइजन के पास बनता है। ऐसा हो सकता है कि एक कण (मान लीजिए प्रतिकण) इवेंट होराइजन के अंदर गिर जाए, जबकि दूसरा कण (असली कण) बाहर रह जाए। जो कण अंदर गिर गया, वो अब बाहर नहीं आ सकता। लेकिन जो कण बाहर रह गया, वो अब अकेला है, उसे खत्म करने के लिए उसका साथी नहीं है। ये अकेला कण अब एक असली कण की तरह व्यवहार कर सकता है और बाहरी स्पेस में उड़ सकता है! दूर से देखने वाले ऑब्जर्वर को ऐसा लगेगा कि ब्लैक होल से कण निकल रहे हैं, जैसे ब्लैक होल रेडिएट कर रहा हो! लेकिन ऊर्जा संरक्षण (conservation of energy) का नियम कहता है कि ऊर्जा न तो बनाई जा सकती है और न ही नष्ट की जा सकती है। तो इन बाहर निकलते कणों की ऊर्जा कहाँ से आई? हॉकिंग ने समझाया कि जो कण इवेंट होराइजन के अंदर गिरा है, उसकी ऊर्जा 'ऋणात्मक' (negative) मानी जा सकती है (क्वांटम फील्ड थ्योरी में ये संभव है)। जब ये ऋणात्मक ऊर्जा वाला कण ब्लैक होल में गिरता है, तो वो ब्लैक होल की कुल ऊर्जा (और इसलिए उसके द्रव्यमान, E=mc² के अनुसार) को कम कर देता है। तो बाहर निकलने वाले कण की धनात्मक ऊर्जा असल में ब्लैक होल के द्रव्यमान से ही आती है! इस प्रक्रिया को आज 'हॉकिंग रेडिएशन' (Hawking Radiation) के नाम से जाना जाता है। 1974 में प्रकाशित हॉकिंग का ये काम एक धमाका था! इसने पहली बार जनरल रिलेटिविटी (जो ब्लैक होल का वर्णन करती है) और क्वांटम मैकेनिक्स (जो वर्चुअल कणों का वर्णन करती है) को एक साथ लाया था। इसने दिखाया कि ब्लैक होल पूरी तरह से काले नहीं हैं! वो बहुत धीमी गति से ही सही, लेकिन ऊर्जा खोते हैं, कणों को उत्सर्जित करते हैं। हॉकिंग रेडिएशन का तापमान ब्लैक होल के द्रव्यमान के व्युत्क्रमानुपाती (inversely proportional) होता है। यानी ब्लैक होल जितना छोटा (कम द्रव्यमान वाला) होगा, उतना ही ज्यादा गर्म होगा और उतनी ही तेजी से रेडिएट करेगा। और ब्लैक होल जितना ब़डा (ज्यादा द्रव्यमान वाला) होगा, उतना ही ठंडा होगा और उतनी ही धीमी गति से रेडिएट करेगा। स्टेलर मास वाले या सुपरमैसिव ब्लैक होल इतने ठंडे होते हैं कि उनका हॉकिंग रेडिएशन कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (CMB) रेडिएशन से भी बहुत कम होता है। इसलिए, आज के यूनिवर्स में ये ब़डे ब्लैक होल असल में ऊर्जा खोने की बजाय CMB से ऊर्जा सोखकर ब़डे हो रहे हैं! उनका हॉकिंग रेडिएशन नगण्य है। लेकिन अगर कोई बहुत छोटा ब्लैक होल होता (शायद बिग बैंग के समय बना हो, जिन्हें 'प्रिमोर्डियल ब्लैक होल' कहते हैं), जिसका द्रव्यमान किसी पहाड़ जितना हो, तो वो काफी गर्म होगा और उससे निकलने वाला हॉकिंग रेडिएशन शायद डिटेक्ट किया जा सके (हालांकि अभी तक ऐसा कोई ब्लैक होल नहीं मिला है)। और अगर ब्लैक होल लगातार रेडिएट करके ऊर्जा खो रहा है, तो इसका मतलब है कि वो धीरे-धीरे सिकुड़ रहा है! उसका द्रव्यमान कम हो रहा है। जैसे-जैसे वो छोटा होता जाएगा, उसका तापमान बढ़ता जाएगा, और वो और तेजी से रेडिएट करेगा। ये प्रक्रिया तब तक चलती रहेगी जब तक कि ब्लैक होल अपना सारा द्रव्यमान खो नहीं देता और आखिरकार एक जबरदस्त गामा किरणों के धमाके (gamma-ray burst) के साथ पूरी तरह से 'वाष्पित' (evaporate) नहीं हो जाता! ये विचार कि ब्लैक होल भी शाश्वत नहीं हैं, बल्कि उनका भी अंत हो सकता है, बहुत क्रांतिकारी था। इसका मतलब था कि ब्लैक होल भी थर्मोडायनामिक्स (thermodynamics) के नियमों का पालन करते हैं। जैकब बेकेंस्टीन (Jacob Bekenstein) नाम के एक और भौतिक विज्ञानी ने पहले ही ये सुझाव दिया था कि ब्लैक होल की एक 'एन्ट्रॉपी' (entropy) होनी चाहिए, जो उनके इवेंट होराइजन के क्षेत्रफल के समानुपाती होती है (एन्ट्रॉपी किसी सिस्टम की अव्यवस्था या उसमें छिपी जानकारी की मात्रा का माप होती है)। हॉकिंग रेडिएशन ने इस आइडिया को और मजबूत किया। अगर ब्लैक होल का तापमान होता है और वो रेडिएट कर सकता है, तो उसकी एन्ट्रॉपी भी होनी चाहिए। हॉकिंग की गणनाओं ने बेकेंस्टीन के फॉर्मूले की पुष्टि की। इसे बेकेंस्टीन-हॉकिंग एन्ट्रॉपी (Bekenstein-Hawking entropy) कहा जाता है। ये नतीजा क्वांटम ग्रेविटी को समझने की दिशा में एक बहुत महत्वपूर्ण कदम था, क्योंकि ये गुरुत्वाकर्षण (इवेंट होराइजन का क्षेत्रफल), क्वांटम मैकेनिक्स (प्लांक कांस्टेंट) और थर्मोडायनामिक्स (एन्ट्रॉपी) को एक ही समीकरण में जोड़ता है। लेकिन हॉकिंग रेडिएशन ने एक और बहुत गहरी पहेली को जन्म दिया, जिसे 'ब्लैक होल इन्फॉर्मेशन पैराडॉक्स' (Black Hole Information Paradox) यानी ब्लैक होल सूचना विरोधाभास कहते हैं। क्वांटम मैकेनिक्स का एक बुनियादी सिद्धांत है कि जानकारी (information) कभी नष्ट नहीं होती। अगर आप किसी सिस्टम की शुरुआती अवस्था जानते हैं, तो आप सैद्धांतिक रूप से उसकी अंतिम अवस्था का पता लगा सकते हैं (भले ही अनिश्चितता सिद्धांत के कारण ये मुश्किल हो)। जानकारी हमेशा संरक्षित रहती है, भले ही वो बदल जाए या फैल जाए। अब सोचिए कि आप एक किताब (जिसमें बहुत सारी जानकारी है) को एक ब्लैक होल में फेंक देते हैं। क्लासिकल थ्योरी के अनुसार, वो किताब इवेंट होराइजन के पार चली जाती है और बाहरी दुनिया के लिए हमेशा के लिए खो जाती है। जानकारी नष्ट हो गई। अब हॉकिंग रेडिएशन को शामिल करें। ब्लैक होल धीरे-धीरे वाष्पित हो रहा है और कणों को उत्सर्जित कर रहा है। जब ब्लैक होल पूरी तरह वाष्पित हो जाएगा, तो क्या होगा? क्या वो किताब की जानकारी वापस बाहर आ जाएगी? हॉकिंग के मूल विश्लेषण के अनुसार, हॉकिंग रेडिएशन पूरी तरह से रैंडम (thermal) होता है, यानी उसमें इस बात की कोई जानकारी नहीं होती कि ब्लैक होल में क्या गिरा था। ऐसा लगता है कि जब ब्लैक होल वाष्पित होता है, तो उसमें गिरी सारी जानकारी हमेशा के लिए नष्ट हो जाती है! ये क्वांटम मैकेनिक्स के मूल सिद्धांत (जानकारी का संरक्षण) का उल्लंघन है! यही है इन्फॉर्मेशन पैराडॉक्स। या तो क्वांटम मैकेनिक्स गलत है (जो कि बहुत संभावना नहीं लगती, क्योंकि ये बाकी सब जगह सही काम करती है), या फिर जनरल रिलेटिविटी (जो ब्लैक होल का वर्णन करती है) गलत है, या फिर हमारी समझ में कहीं कोई मूलभूत कमी है। इस विरोधाभास ने दशकों तक भौतिक विज्ञानियों को उलझाए रखा है और ये आज भी पूरी तरह से सुलझा नहीं है। स्टीफन हॉकिंग खुद शुरुआत में मानते थे कि ब्लैक होल में जानकारी नष्ट हो जाती है। ये उनके लिए एक बहुत ही रैडिकल स्टैंड था। लेकिन कई अन्य भौतिक विज्ञानी, जैसे कि लियोनार्ड सस्किंड (Leonard Susskind) और जेरार्ड 'टी हूफ्ट (Gerard 't Hooft), इस विचार से सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि जानकारी किसी न किसी तरह से संरक्षित रहनी चाहिए। उन्होंने तर्क दिया कि शायद हॉकिंग रेडिएशन पूरी तरह रैंडम नहीं है, बल्कि उसमें बहुत सूक्ष्म रूप से वो जानकारी छिपी होती है जो ब्लैक होल में गिरी थी। या शायद जानकारी इवेंट होराइजन पर ही 'स्टोर' हो जाती है (होलोग्राफिक प्रिंसिपल का आइडिया)। ये बहस सालों तक चलती रही। आखिरकार, 2004 में, हॉकिंग ने नाटकीय रूप से अपनी राय बदली! उन्होंने एक कॉन्फ्रेंस में घोषणा की कि अब वो मानते हैं कि जानकारी ब्लैक होल में नष्ट नहीं होती है, बल्कि वो हॉकिंग रेडिएशन के जरिए धीरे-धीरे बाहर निकलती है, हालांकि शायद बहुत ही गड्डमड्ड (scrambled) रूप में। उन्होंने माना कि उनके पिछले तर्क में कुछ कमी थी। उन्होंने कहा कि शायद ब्लैक होल का वाष्पीकरण पूरी तरह से यूनिटरी (unitary) है (क्वांटम मैकेनिक्स का एक गुण जो जानकारी के संरक्षण को सुनिश्चित करता है), लेकिन ये कैसे होता है, ये अभी भी साफ नहीं है। इसे समझने के लिए शायद क्वांटम ग्रेविटी की पूरी थ्योरी की जरूरत होगी। तो इन्फॉर्मेशन पैराडॉक्स अभी भी एक्टिव रिसर्च का विषय है। इसे सुलझाने के लिए कई नए आइडियाज प्रस्तावित किए गए हैं, जैसे 'फायरवॉल पैराडॉक्स' (firewall paradox), जो इवेंट होराइजन पर एक उच्च ऊर्जा वाली दीवार की कल्पना करता है, या 'ER=EPR' कंजेक्चर, जो क्वांटम एंटेंगलमेंट (quantum entanglement) को स्पेस-टाइम में वर्महोल (wormholes) से जोड़ता है। ये सभी आइडियाज बहुत जटिल हैं और अभी तक साबित नहीं हुए हैं। लेकिन ये दिखाते हैं कि ब्लैक होल अभी भी हमारी भौतिकी की समझ के लिए एक परीक्षण स्थल बने हुए हैं। तो हॉकिंग रेडिएशन ने हमें सिखाया कि ब्लैक होल उतने काले नहीं हैं जितने दिखते हैं। वो क्वांटम प्रभावों के कारण धीरे-धीरे रेडिएट करते हैं और आखिरकार वाष्पित हो सकते हैं। इस खोज ने थर्मोडायनामिक्स, क्वांटम मैकेनिक्स और ग्रेविटी के बीच गहरे संबंध उजागर किए। लेकिन इसने इन्फॉर्मेशन पैराडॉक्स जैसी नई पहेलियाँ भी खड़ी कर दीं, जो हमें याद दिलाती हैं कि हम अभी भी यूनिवर्स के इन रहस्यमयी ऑब्जेक्ट्स के बारे में बहुत कुछ नहीं जानते हैं। ब्लैक होल और उनका वाष्पीकरण हमें यूनिवर्स के और भी ब़डे सवालों की ओर ले जाते हैं। अगर यूनिवर्स बिग बैंग से शुरू हुआ, तो उसकी शुरुआत कैसी थी? क्या वो भी एक सिंगुलैरिटी थी? और यूनिवर्स का अंत कैसा होगा? क्या वो हमेशा फैलता रहेगा, या वापस सिकु़डेगा, या शायद क्वांटम प्रभाव उसके भविष्य में कोई भूमिका निभाएंगे? ये वो सवाल हैं जिनका सामना हम अगले अध्याय में करेंगे, जब हम ब्रह्मांड की उत्पत्ति और उसके अंतिम भाग्य के बारे में बात करेंगे। क्या आप यूनिवर्स की पूरी कहानी, शुरू से अंत तक, जानने के लिए तैयार हैं? तो हमसे जुड़ें ओडियोबुक Legends के अगले एपिसोड में! अध्याय नंबर 8: ब्रह्मांड की उत्पत्ति और अंत। दोस्तों, अब तक की हमारी यात्रा हमें ब्रह्मांड के रहस्यों की गहराईयों में ले गई है। हमने स्पेस-टाइम के लचीलेपन, क्वांटम दुनिया की अनिश्चितता, पदार्थ के मूल कणों, फैलते हुए यूनिवर्स और यहाँ तक कि ब्लैक होल के वाष्पीकरण को भी छुआ है। अब समय है कि हम इन सभी टुकड़ों को एक साथ जोड़कर सबसे ब़डे सवालों का सामना करें: हमारा ब्रह्मांड कहाँ से आया? इसकी शुरुआत कैसे हुई? और इसका भविष्य क्या है? इसका अंत कैसा होगा? ये वो सवाल हैं जो इंसान हमेशा से पूछता आया है, और स्टीफन हॉकिंग की किताब 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' इन्हीं सवालों के वैज्ञानिक जवाब खोजने का प्रयास करती है। जैसा कि हमने अध्याय 3 में देखा, एडविन हबल की खोज कि यूनिवर्स फैल रहा है, हमें समय में पीछे ले जाती है एक ऐसे बिंदु तक जहाँ सारा पदार्थ और ऊर्जा एक अत्यधिक गर्म और घनी अवस्था में सिमटे हुए थे। ये है बिग बैंग (Big Bang) का क्षण, जिसे हम अपने यूनिवर्स की शुरुआत मानते हैं, लगभग 13.8 अरब साल पहले। बिग बैंग थ्योरी आज हमारे पास यूनिवर्स की उत्पत्ति का सबसे अच्छा वैज्ञानिक मॉडल है, जिसे कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (CMB) और हल्के तत्वों की प्रचुरता जैसे सबूतों का समर्थन हासिल है। लेकिन बिग बैंग थ्योरी अपने आप में पूरी कहानी नहीं बताती। ये ये तो बताती है कि यूनिवर्स एक गर्म, घनी अवस्था से फैलना शुरू हुआ, लेकिन ये नहीं बताती कि वो शुरुआती अवस्था आई कहाँ से? बिग बैंग खुद कैसे हुआ? क्या बिग बैंग से पहले भी कुछ था? क्लासिकल जनरल रिलेटिविटी के अनुसार, अगर हम समय में पीछे जाएं, तो हम एक 'सिंगुलैरिटी' (singularity) पर पहुँचते हैं – एक ऐसा बिंदु जहाँ घनत्व और स्पेस-टाइम का कर्वेचर अनंत हो जाता है, और हमारी भौतिकी के नियम टूट जाते हैं। ये ठीक वैसा ही है जैसा ब्लैक होल के केंद्र में होता है। तो क्या हमारा यूनिवर्स एक सिंगुलैरिटी से शुरू हुआ? स्टीफन हॉकिंग ने रोजर पेनरोस (Roger Penrose) के साथ मिलकर 1960 के दशक में कुछ महत्वपूर्ण प्रमेय (theorems) साबित किए थे, जिन्हें पेनरोस-हॉकिंग सिंगुलैरिटी थ्योरम्स कहते हैं। ये थ्योरम दिखाते हैं कि अगर जनरल रिलेटिविटी सही है और यूनिवर्स में पर्याप्त मात्रा में पदार्थ है (जो कि लगता है है), तो अतीत में एक सिंगुलैरिटी का होना अनिवार्य है। तो क्लासिकल थ्योरी के अनुसार, बिग बैंग एक सिंगुलैरिटी थी, जहाँ स्पेस और टाइम खुद शुरू हुए। इससे पहले 'क्या था?' ये सवाल ही शायद बेमानी है, क्योंकि 'पहले' का कोई मतलब ही नहीं था अगर टाइम खुद वहाँ से शुरू हुआ! जैसे कि उत्तरी ध्रुव के 'उत्तर' में क्या है, ये पूछना बेमानी है। लेकिन हम जानते हैं कि चरम स्थितियों में, जैसे कि सिंगुलैरिटी के पास, क्वांटम प्रभावों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। और क्वांटम मैकेनिक्स शायद सिंगुलैरिटी के विचार को ही खत्म कर दे। जैसा हमने ब्लैक होल के मामले में देखा, अनिश्चितता सिद्धांत शायद घनत्व और कर्वेचर को अनंत होने से रोकता है। तो क्या क्वांटम ग्रेविटी (जिसकी थ्योरी अभी हमारे पास नहीं है) बिग बैंग सिंगुलैरिटी को भी हटा सकती है? हॉकिंग ने जेम्स हार्टल (James Hartle) के साथ मिलकर 1980 के दशक में एक बहुत ही दिलचस्प आइडिया प्रस्तावित किया, जिसे 'नो-बाउंड्री प्रपोजल' (No-Boundary Proposal) या हार्टल-हॉकिंग स्टेट कहते हैं। उन्होंने क्वांटम मैकेनिक्स को शुरुआती यूनिवर्स पर लागू करने की कोशिश की। उन्होंने सोचा कि अगर हम समय को एक 'काल्पनिक समय' (imaginary time) के रूप में देखें (जो गणितीय रूप से वास्तविक समय से जुड़ा है), तो शायद स्पेस और टाइम की शुरुआत बिल्कुल स्मूथ (smooth) रही हो, बिना किसी सिंगुलैरिटी के! इसे समझने के लिए पृथ्वी की सतह का उदाहरण सोचिए। पृथ्वी की सतह सीमित है (उसका क्षेत्रफल निश्चित है), लेकिन उसका कोई किनारा (boundary or edge) या सिंगुलैरिटी नहीं है (जैसे कोई नुकीला कोना नहीं है)। आप सतह पर चलते रह सकते हैं और कभी किसी किनारे पर नहीं पहुँचेंगे। हार्टल-हॉकिंग प्रपोजल के अनुसार, शायद स्पेस-टाइम भी शुरुआती दौर में ऐसा ही था – चार-आयामी, सीमित लेकिन बिना किसी किनारे या सिंगुलैरिटी के। अगर ऐसा है, तो यूनिवर्स की शुरुआत पूरी तरह से भौतिकी के नियमों द्वारा निर्धारित की जा सकती है, बिना किसी बाहरी कारण या 'शुरुआती पल' की जरूरत के। यूनिवर्स बस 'है'। ये एक बहुत ही गूढ और दार्शनिक रूप से आकर्षक विचार है, लेकिन ये अभी भी एक परिकल्पना (hypothesis) है और इसे साबित करना बहुत मुश्किल है। इसे क्वांटम कॉस्मोलॉजी (quantum cosmology) के क्षेत्र में खोजा जा रहा है। बिग बैंग थ्योरी की कुछ और पहेलियाँ भी हैं जिन्हें स्टैंडर्ड मॉडल नहीं समझा पाता। जैसे कि: * **फ्लैटनेस प्रॉब्लम (Flatness Problem):** हमारा यूनिवर्स अविश्वसनीय रूप से 'फ्लैट' (flat) यानी समतल क्यों है? जनरल रिलेटिविटी के अनुसार, यूनिवर्स का कर्वेचर समय के साथ बदलना चाहिए। अगर शुरुआती यूनिवर्स थो़डा सा भी कर्व्ड (मु़डा हुआ) होता, तो आज वो या तो बहुत ज्यादा बंद (closed, बिग क्रंच की ओर) होता या बहुत ज्यादा खुला (open, बहुत तेजी से फैलता हुआ) होता। ये इतना सटीक रूप से फ्लैट क्यों है, जैसे किसी ने इसे फाइन-ट्यून किया हो? * **होराइजन प्रॉब्लम (Horizon Problem):** जब हम कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (CMB) को देखते हैं, तो वो हर दिशा में आश्चर्यजनक रूप से एक समान तापमान वाला दिखता है (बहुत छोटी उतार-च़ढाव को छो़डकर)। लेकिन CMB तब बनी थी जब यूनिवर्स लगभग 380,000 साल का था। उस समय, आसमान के विपरीत छोर इतने दूर थे कि उनके बीच प्रकाश भी यात्रा नहीं कर पाया था। तो वो दोनों हिस्से एक ही तापमान पर कैसे पहुँचे? वो एक-दूसरे के संपर्क में कैसे आए? * **मैग्नेटिक मोनोपोल प्रॉब्लम (Magnetic Monopole Problem):** कुछ पार्टिकल फिजिक्स थ्योरीज भविष्यवाणी करती हैं कि शुरुआती गर्म यूनिवर्स में भारी मात्रा में मैग्नेटिक मोनोपोल (यानी अकेले उत्तरी या दक्षिणी ध्रुव वाले कण) बनने चाहिए थे। लेकिन हमने आज तक एक भी मोनोपोल नहीं खोजा है। वो सब कहाँ गए? इन पहेलियों को समझाने के लिए, 1980 के दशक में एलन गूथ (Alan Guth), आंद्रेई लिंडे (Andrei Linde) और अन्य वैज्ञानिकों ने 'इन्फ्लेशन थ्योरी' (Inflation Theory) का विचार प्रस्तुत किया। ये थ्योरी कहती है कि बिग बैंग के तुरंत बाद, यूनिवर्स के अस्तित्व के पहले सेकंड के एक बहुत छोटे से अंश में (लगभग 10⁻³⁶ से 10⁻³² सेकंड तक), यूनिवर्स ने एक अविश्वसनीय रूप से तेज, एक्सपोनेंशियल (exponential) विस्तार का दौर अनुभव किया। इस अति-सूक्ष्म समय में, यूनिवर्स का आकार अरबों-खरबों गुना ब़ढ गया! ये विस्तार शायद एक खास तरह की ऊर्जा फील्ड (जिसे इन्फ्लैटॉन फील्ड कहते हैं) के कारण हुआ था। इन्फ्लेशन थ्योरी इन तीनों समस्याओं का खूबसूरत हल पेश करती है: * **फ्लैटनेस प्रॉब्लम का हल:** सोचिए एक मु़डे हुए गुब्बारे की सतह को आप बहुत-बहुत ज्यादा फुला दें। अब उसका कोई छोटा सा हिस्सा देखेंगे तो वो लगभग फ्लैट ही दिखेगा। इसी तरह, इन्फ्लेशन ने यूनिवर्स को इतना ज्यादा फैला दिया कि आज हमें वो फ्लैट दिखता है, चाहे वो शुरुआत में कैसा भी रहा हो। * **होराइजन प्रॉब्लम का हल:** इन्फ्लेशन से पहले, वो क्षेत्र जिससे आज हमारा देखने योग्य यूनिवर्स बना है, बहुत छोटा था और थर्मल इक्विलिब्रियम (thermal equilibrium) में था, यानी उसका तापमान हर जगह एक जैसा था। इन्फ्लेशन ने इस छोटे से क्षेत्र को अचानक बहुत ब़डा कर दिया, जिससे आज हमें दूर-दूर के हिस्से भी एक ही तापमान पर दिखते हैं। * **मैग्नेटिक मोनोपोल प्रॉब्लम का हल:** इन्फ्लेशन ने शुरुआती यूनिवर्स में बने किसी भी मोनोपोल को इतनी दूर-दूर फैला दिया कि आज हमारे देखने योग्य यूनिवर्स में उनके मिलने की संभावना लगभग शून्य हो जाती है। इन्फ्लेशन थ्योरी की एक और महत्वपूर्ण भविष्यवाणी ये है कि शुरुआती क्वांटम उतार-च़ढाव (quantum fluctuations) को इन्फ्लेशन ने खगोलीय स्केल तक फैला दिया होगा। यही उतार-च़ढाव बाद में घनत्व में मामूली अंतर बने होंगे, जिनसे गुरुत्वाकर्षण ने पदार्थ को इकट्ठा करके गैलेक्सियों और तारों जैसी संरचनाओं को बनाया। कॉस्मिक माइक्रोवेव बैकग्राउंड (CMB) में देखे गए तापमान के बहुत छोटे उतार-च़ढाव का पैटर्न ठीक वैसा ही है जैसा इन्फ्लेशन थ्योरी भविष्यवाणी करती है! ये इन्फ्लेशन के लिए एक मजबूत सबूत माना जाता है, हालांकि इन्फ्लेशन का सटीक मैकेनिज्म अभी भी पूरी तरह समझा नहीं गया है। तो हमारी वर्तमान समझ ये है: यूनिवर्स शायद हार्टल-हॉकिंग स्टेट जैसी किसी क्वांटम अवस्था से, बिना किसी सिंगुलैरिटी के शुरू हुआ। फिर इसने इन्फ्लेशन के एक अति-तेज दौर का अनुभव किया, जिसने इसे ब़डा, फ्लैट और स्मूथ बना दिया, साथ ही गैलेक्सियों के बीज भी बो दिए। इसके बाद बिग बैंग का 'गर्म' चरण शुरू हुआ, यूनिवर्स फैलता और ठंडा होता गया, कण बने, एटम बने, और आखिरकार तारे और गैलेक्सियां बनीं। ये कहानी काफी हद तक संतोषजनक लगती है। लेकिन यूनिवर्स का भविष्य क्या है? इसका अंत कैसा होगा? जैसा हमने अध्याय 3 में चर्चा की थी, इसका जवाब यूनिवर्स के फैलाव की दर और उसमें मौजूद पदार्थ और ऊर्जा की मात्रा पर निर्भर करता है। खासकर उस रहस्यमयी डार्क एनर्जी पर, जो यूनिवर्स के फैलाव को तेज कर रही है। हमारे पास भविष्य के लिए कुछ संभावित परिदृश्य हैं: 1. **बिग क्रंच (Big Crunch):** अगर यूनिवर्स में पर्याप्त घनत्व होता (या डार्क एनर्जी का प्रभाव भविष्य में पलट जाता), तो गुरुत्वाकर्षण फैलाव को रोक देता और यूनिवर्स वापस सिकुड़ने लगता। सारी गैलेक्सियां पास आतीं, तापमान बढ़ता, और आखिरकार सब कुछ वापस एक सिंगुलैरिटी में ढह जाता। हालांकि, वर्तमान अवलोकन (डार्क एनर्जी के कारण तेज होता फैलाव) इसे कम संभावित बनाते हैं। 2. **बिग फ्रीज (Big Freeze) या हीट डेथ (Heat Death):** अगर डार्क एनर्जी स्थिर रहती है (जैसा कि कॉस्मोलॉजिकल कांस्टेंट के मामले में होता है), तो यूनिवर्स हमेशा-हमेशा फैलता रहेगा, और वो भी तेज गति से। गैलेक्सियां एक-दूसरे से दूर होती जाएंगी, इतनी दूर कि वो एक-दूसरे के देखने योग्य यूनिवर्स से बाहर निकल जाएंगी। तारे अपना ईंधन जलाकर खत्म हो जाएंगे। नए तारे बनने बंद हो जाएंगे। बचे हुए पिंड (जैसे ब्लैक होल, न्यूट्रॉन स्टार, व्हाइट ड्वार्फ) धीरे-धीरे ठंडे होते जाएंगे। ब्लैक होल हॉकिंग रेडिएशन के जरिए अरबों-खरबों सालों में वाष्पित हो जाएंगे। आखिरकार, यूनिवर्स एक बेहद ठंडा, अंधेरा और खाली स्थान बन जाएगा, जिसमें लगभग कोई गतिविधि नहीं होगी। ये थर्मोडायनामिक्स की 'हीट डेथ' की स्थिति होगी, जहाँ एन्ट्रॉपी अधिकतम हो जाती है। ये आजकल सबसे संभावित अंत माना जाता है। 3. **बिग रिप (Big Rip):** ये एक और भी नाटकीय अंत है, जो तब हो सकता है अगर डार्क एनर्जी समय के साथ और मजबूत होती जाए (जिसे फैंटम एनर्जी कहते हैं)। इस स्थिति में, न सिर्फ गैलेक्सियां दूर होंगी, बल्कि डार्क एनर्जी का बढ़ता हुआ प्रभाव पहले गैलेक्सियों को तोड़ देगा, फिर सौर मंडलों को, फिर तारों और ग्रहों को, फिर एटमों को, और शायद अंत में स्पेस-टाइम को ही फाड़ देगा! ये शायद सबसे भयानक अंत है, लेकिन अभी के डेटा के अनुसार इसकी संभावना कम लगती है। स्टीफन हॉकिंग ने अपनी किताब में इन संभावित अंतों पर विचार किया है। वो खासकर बिग क्रंच के परिदृश्य में रुचि रखते थे, और उन्होंने सोचा था कि क्या बिग क्रंच में समय उल्टा बहेगा? यानी अगर यूनिवर्स वापस सिकुड़ने लगे, तो क्या चीजें टूटने की बजाय जुड़ने लगेंगी, लोग मरने की बजाय पैदा होने लगेंगे? हालांकि ये आइडिया दिलचस्प लगता है, हॉकिंग ने बाद में निष्कर्ष निकाला कि ऐसा होने की संभावना नहीं है। थर्मोडायनामिक्स का दूसरा नियम (एन्ट्रॉपी हमेशा बढ़ती है) शायद सिकुड़ते हुए यूनिवर्स में भी लागू रहेगा। तो यूनिवर्स की कहानी एक महाकाव्य है – एक रहस्यमयी शुरुआत से, इन्फ्लेशन के दौर से, गर्म बिग बैंग से, तारों और गैलेक्सियों के बनने तक, और शायद एक ठंडे, अंधेरे, अनंत भविष्य की ओर। ये कहानी हमें हमारी जगह का एहसास कराती है – हम एक विशाल, विकसित होते ब्रह्मांड में एक छोटे से ग्रह पर रहते हैं, और हम उस कहानी को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इस कहानी में एक और किरदार है जिसकी हमने अभी तक ज्यादा बात नहीं की है – समय (Time)। हमने देखा कि स्पेस और टाइम रिलेटिव हैं, गुरुत्वाकर्षण से मुड़ते हैं, और शायद उनकी कोई शुरुआत या अंत न हो। लेकिन समय हमेशा आगे ही क्यों बढ़ता है? हम अतीत को याद रखते हैं, भविष्य को नहीं। चीजें टूटती हैं, बनती नहीं। क्यों? क्या समय की दिशा का कोई गहरा मतलब है? इस सवाल को हम अगले अध्याय में उठाएंगे, जब हम 'समय के तीर' (Arrow of Time) की बात करेंगे। क्यों हम बुड्ढे होते हैं, जवान नहीं? इसका जवाब शायद थर्मोडायनामिक्स और यूनिवर्स की शुरुआत में छिपा है। जानने के लिए तैयार हैं? तो मिलते हैं ओडियोबुक Legends के अगले अध्याय में! अध्याय नंबर 9: समय का तीर। दोस्तों, हमारी यूनिवर्स की यात्रा अब अपने अंतिम पड़ावों की ओर बढ़ रही है। हमने ब्रह्मांड की उत्पत्ति से लेकर उसके संभावित अंत तक की कहानी सुनी। हमने स्पेस-टाइम, क्वांटम मैकेनिक्स, मूल कणों, ब्लैक होल जैसे गूढ विषयों को समझने की कोशिश की। लेकिन इन सबके बीच एक ऐसा रहस्य है जो हमारी रोजमर्रा की जिंदगी से सीधे जुड़ा है, फिर भी बहुत गहरा है – वो है समय की दिशा, या जिसे स्टीफन हॉकिंग 'समय का तीर' (Arrow of Time) कहते हैं। हम सब अनुभव करते हैं कि समय हमेशा एक ही दिशा में बहता है – अतीत से भविष्य की ओर। हम कल को याद रखते हैं, आने वाले कल को नहीं। एक गिरा हुआ कप अपने आप जुड़कर टेबल पर वापस नहीं कूदता। हम उम्र में ब़डे होते हैं, छोटे नहीं। ऐसा क्यों है? क्यों समय की एक पसंदीदा दिशा है? भौतिकी के ज्यादातर बुनियादी नियम (जैसे न्यूटन के नियम, आइंस्टीन की रिलेटिविटी, श्रोडिंगर का समीकरण) टाइम-सिमेट्रिक (time-symmetric) हैं। यानी अगर आप समय को उल्टा चला दें (t को -t से बदल दें), तो भी नियम वैसे ही काम करते हुए लगते हैं। एक ग्रह का सूरज के चारों तरफ उल्टा घूमना भी नियमों के अनुसार संभव है। तो फिर हमारी दुनिया में समय का तीर इतना स्पष्ट क्यों है? स्टीफन हॉकिंग अपनी किताब में बताते हैं कि असल में 'समय के तीर' के कम से कम तीन अलग-अलग प्रकार हैं: 1. **थर्मोडायनामिक एरो ऑफ टाइम (Thermodynamic Arrow of Time):** ये वो दिशा है जिसमें अव्यवस्था (disorder) या एन्ट्रॉपी (entropy) बढ़ती है। ये थर्मोडायनामिक्स के दूसरे नियम पर आधारित है, जो कहता है कि किसी भी बंद सिस्टम में, समय के साथ कुल एन्ट्रॉपी या तो बढ़ती है या स्थिर रहती है, कभी कम नहीं होती। एक साफ कमरा समय के साथ अपने आप गंदा हो जाता है, लेकिन गंदा कमरा अपने आप साफ नहीं होता। एक कप का टूटना एन्ट्रॉपी को ब़ढाता है (कई टुकड़ों में ज्यादा अव्यवस्था है), जबकि टुकड़ों का जुड़कर कप बनना एन्ट्रॉपी को कम करेगा, जो स्वतः नहीं होता। यही वो तीर है जो हमें उम्रदराज बनाता है (हमारे शरीर में अव्यवस्था बढ़ती है), और यही कारण है कि हम अतीत और भविष्य में फर्क महसूस करते हैं। 2. **साइकोलॉजिकल एरो ऑफ टाइम (Psychological Arrow of Time):** ये वो दिशा है जिसमें हम समय को बहता हुआ महसूस करते हैं, जिसमें हम अतीत को याद रखते हैं और भविष्य का अनुमान लगाते हैं। हम भविष्य को क्यों नहीं याद रख सकते? हॉकिंग का तर्क है कि हमारा दिमाग भी थर्मोडायनामिक्स के दूसरे नियम का पालन करता है। याददाश्त बनाने के लिए दिमाग को ऊर्जा खर्च करनी प़डती है (जैसे कंप्यूटर में मेमोरी स्टोर करने के लिए), और इस प्रक्रिया में एन्ट्रॉपी बढ़ती है। इसलिए, हमारे याद रखने की दिशा (अतीत से भविष्य) उसी दिशा से मेल खाती है जिसमें एन्ट्रॉपी बढ़ती है। हम उसी दिशा में समय को 'महसूस' करते हैं जिस दिशा में अव्यवस्था बढ़ती है। तो साइकोलॉजिकल एरो ऑफ टाइम मूल रूप से थर्मोडायनामिक एरो ऑफ टाइम से ही जुड़ा है। 3. **कॉस्मोलॉजिकल एरो ऑफ टाइम (Cosmological Arrow of Time):** ये वो दिशा है जिसमें यूनिवर्स फैल रहा है। जैसा कि हमने देखा, हमारा यूनिवर्स वर्तमान में फैल रहा है। क्या ये समय के तीर से जुड़ा है? क्या अगर यूनिवर्स सिकुड़ रहा होता, तो समय उल्टा बहता? अब सबसे ब़डा सवाल ये है कि थर्मोडायनामिक एरो ऑफ टाइम क्यों मौजूद है? एन्ट्रॉपी हमेशा बढ़ती ही क्यों है? इसका जवाब शायद यूनिवर्स की शुरुआती अवस्था में छिपा है। थर्मोडायनामिक्स का दूसरा नियम हमें बताता है कि सिस्टम अव्यवस्था की ओर बढ़ते हैं। इसका मतलब है कि अगर एन्ट्रॉपी लगातार बढ़ रही है, तो अतीत में यूनिवर्स जरूर बहुत ही व्यवस्थित (low entropy) अवस्था में रहा होगा! बिग बैंग के समय यूनिवर्स अत्यधिक गर्म और घना था, लेकिन शायद वो बहुत ही स्मूथ और व्यवस्थित भी था। ये एक बहुत ही खास, कम संभावना वाली शुरुआती अवस्था थी। क्यों यूनिवर्स ऐसी कम एन्ट्रॉपी वाली अवस्था से शुरू हुआ? ये एक गहरा सवाल है। हार्टल-हॉकिंग नो-बाउंड्री प्रपोजल शायद इसका एक संभावित जवाब देता है। अगर यूनिवर्स की शुरुआत स्मूथ और बिना किनारे वाली थी, तो शायद वो स्वाभाविक रूप से ही एक कम एन्ट्रॉपी वाली स्थिति में थी। इन्फ्लेशन ने भी इसमें भूमिका निभाई होगी, शुरुआती उतार-चढ़ाव को फैलाकर। तो कहानी ये बनती है: यूनिवर्स एक बहुत ही व्यवस्थित, कम एन्ट्रॉपी वाली अवस्था से शुरू हुआ। थर्मोडायनामिक्स के दूसरे नियम के कारण, समय के साथ इसकी एन्ट्रॉपी लगातार बढ़ती गई, जिससे अव्यवस्था पैदा हुई। हमारा दिमाग, जो खुद थर्मोडायनामिक नियमों का पालन करता है, इसी बढ़ती एन्ट्रॉपी की दिशा में समय को महसूस करता है और यादें बनाता है। इसीलिए हमें समय का एक तीर दिखाई देता है, अतीत से भविष्य की ओर। अब उस सवाल पर वापस आते हैं: क्या कॉस्मोलॉजिकल एरो ऑफ टाइम (यूनिवर्स का फैलाव) और थर्मोडायनामिक एरो ऑफ टाइम (एन्ट्रॉपी का बढ़ना) एक ही चीज हैं? क्या अगर यूनिवर्स फैलने की बजाय सिकुड़ने लगे (बिग क्रंच की स्थिति में), तो क्या थर्मोडायनामिक तीर भी उलट जाएगा? क्या एन्ट्रॉपी कम होने लगेगी? क्या टूटे कप जुड़ने लगेंगे और लोग जवान होने लगेंगे? स्टीफन हॉकिंग ने शुरुआत में ऐसा सोचा था। उन्हें लगा कि शायद सिकुड़ते हुए यूनिवर्स में 'नो-बाउंड्री' कंडीशन लागू होगी, जिससे एन्ट्रॉपी कम होने लगेगी और समय का तीर उलट जाएगा। लेकिन बाद में उन्होंने अपना विचार बदल दिया। उन्होंने और उनके सहयोगियों ने महसूस किया कि सिकुड़ते हुए यूनिवर्स में भी, उतार-चढ़ाव बढ़ेंगे और गुरुत्वाकर्षण चीजों को इकट्ठा करके ब्लैक होल जैसी संरचनाएं बनाएगा, जिससे एन्ट्रॉपी बढ़ती ही रहेगी। नो-बाउंड्री कंडीशन शायद सिर्फ शुरुआत पर लागू होती है, अंत पर नहीं। इसलिए, हॉकिंग का बाद का निष्कर्ष था कि अगर यूनिवर्स सिकुड़ना शुरू भी कर दे, तो भी थर्मोडायनामिक और साइकोलॉजिकल तीर उसी दिशा में बने रहेंगे। यानी हम तब भी चीजों को टूटते हुए और खुद को बूढ़ा होते हुए ही देखेंगे, भले ही यूनिवर्स सिकुड़ रहा हो। ये सिकुड़ते यूनिवर्स में रहने वालों के लिए शायद अच्छी खबर नहीं होगी! तो ऐसा लगता है कि समय का तीर (कम से कम थर्मोडायनामिक और साइकोलॉजिकल) यूनिवर्स की बेहद खास, कम एन्ट्रॉपी वाली शुरुआती अवस्था के कारण है। ये यूनिवर्स के फैलने या सिकुड़ने से सीधे तौर पर जुड़ा नहीं है, हालांकि फैलता हुआ यूनिवर्स एन्ट्रॉपी बढ़ने के लिए ज्यादा जगह देता है। लेकिन क्या समय का तीर हमेशा इतना मजबूत रहेगा? हमने देखा कि यूनिवर्स शायद एक 'हीट डेथ' की ओर बढ़ रहा है, जहाँ वो ठंडा, खाली और अधिकतम एन्ट्रॉपी की स्थिति में पहुँच जाएगा। उस स्थिति में, शायद कोई सार्थक बदलाव नहीं होगा, एन्ट्रॉपी और नहीं बढ़ पाएगी। क्या तब समय का तीर कमजोर पड़ जाएगा या गायब हो जाएगा? ये एक काल्पनिक सवाल है, क्योंकि ये अरबों-खरबों साल दूर की बात है। समय के तीर से जुड़ा एक और दिलचस्प सवाल है 'कारण और प्रभाव' (cause and effect) का। हम हमेशा देखते हैं कि कारण पहले आता है और प्रभाव बाद में। क्या ये भी समय के तीर से जुड़ा है? क्या ये संभव है कि प्रभाव कारण से पहले आ जाए (जिसे रेट्रोकॉजेलिटी कहते हैं)? क्वांटम मैकेनिक्स में कुछ अजीब घटनाएं (जैसे एंटेंगलमेंट) ऐसी लगती हैं जहाँ दूर के कण तुरंत एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, लेकिन उनसे जानकारी प्रकाश से तेज नहीं भेजी जा सकती, इसलिए কার্যकारण (causality) का उल्लंघन नहीं होता। समय के तीर को उलटना शायद কার্যकारण को भी उलटने जैसा होगा, जो हमारी समझ के परे है। तो समय का तीर, जो हमें इतना स्वाभाविक लगता है, वो असल में यूनिवर्स की शुरुआती स्थितियों और थर्मोडायनामिक्स के नियमों का एक गहरा नतीजा है। ये हमें याद दिलाता है कि हम एक ऐसे ब्रह्मांड में रहते हैं जिसका एक इतिहास है, जो अव्यवस्था की ओर बढ़ रहा है, और इसी प्रक्रिया में जीवन और चेतना जैसी जटिल चीजें संभव हो पाती हैं। हम अतीत से सीखते हैं और भविष्य की योजना बनाते हैं, क्योंकि समय का तीर हमें इसी दिशा में ले जाता है। स्टीफन हॉकिंग हमें इन गहराइयों में ले जाते हैं, हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि समय क्या है और ये क्यों बहता है। उनकी किताब सिर्फ ब्रह्मांड के बारे में नहीं है, बल्कि ये हमारे अस्तित्व के सबसे बुनियादी सवालों में से एक को भी छूती है। अब जब हमने समय के तीर को समझ लिया है, और यूनिवर्स की कहानी के लगभग सभी मुख्य पहलुओं – स्पेस, टाइम, कण, शक्तियाँ, शुरुआत, अंत – को देख लिया है, तो एक आखिरी सवाल बचता है। क्या इन सबको एक ही फ्रेमवर्क में समझना संभव है? क्या भौतिकी की एक ऐसी 'थ्योरी ऑफ एवरीथिंग' (Theory of Everything) हो सकती है जो यूनिवर्स के सभी कणों, सभी शक्तियों और स्पेस-टाइम को एक ही सिद्धांत से समझा सके? यही वो पवित्र grail (पवित्र प्याला) है जिसकी तलाश में हॉकिंग और कई अन्य वैज्ञानिक लगे रहे। क्या हम इसके करीब हैं? हमारी आखिरी मंजिल यही है – भौतिकी के एकीकरण की खोज। क्या आप यूनिवर्स के अंतिम रहस्य को जानने की इस कोशिश में शामिल होना चाहेंगे? तो तैयार रहिए ओडियोबुक Legends के अंतिम ज्ञानवर्धक अध्याय के लिए! अध्याय नंबर 10: भौतिकी का एकीकरण: अंतिम खोज। और लीजिए दोस्तों, हम आ पहुँचे हैं अपनी इस अद्भुत यात्रा के आखिरी पड़ाव पर। हमने स्टीफन हॉकिंग की 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' के साथ ब्रह्मांड के कोने-कोने की सैर की। हमने यूनिवर्स की विशालता को देखा, कणों की सूक्ष्म दुनिया को समझा, स्पेस-टाइम के रहस्यों को जाना, ब्लैक होल के अँधेरे में झाँका, और समय के तीर की दिशा को पहचाना। हमने देखा कि कैसे बीसवीं सदी में भौतिकी ने दो महान क्रांतियाँ कीं: जनरल रिलेटिविटी, जो गुरुत्वाकर्षण और ब्रह्मांडीय पैमाने का वर्णन करती है, और क्वांटम मैकेनिक्स, जो बाकी तीन बलों (विद्युतचुंबकीय, प्रबल नाभिकीय, दुर्बल नाभिकीय) और सूक्ष्म पैमाने का वर्णन करती है। ये दोनों थ्योरीज अपने-अपने क्षेत्रों में अविश्वसनीय रूप से सफल रही हैं। जनरल रिलेटिविटी ने ग्रहों की कक्षाओं, प्रकाश के मुड़ने, गुरुत्वाकर्षण तरंगों और फैलते यूनिवर्स की सटीक भविष्यवाणी की है। क्वांटम मैकेनिक्स पर आधारित स्टैंडर्ड मॉडल ने कणों के चिड़ियाघर और उनके इंटरैक्शन को अद्भुत सटीकता से समझाया है, जिससे लेजर से लेकर कंप्यूटर तक की टेक्नोलॉजी संभव हुई है। लेकिन जैसा कि हमने बार-बार जिक्र किया है, ये दोनों महान थ्योरीज आपस में मेल नहीं खातीं। ये दो अलग-अलग भाषाओं की तरह हैं, जो यूनिवर्स के अलग-अलग पहलुओं का वर्णन करती हैं, लेकिन एक-दूसरे से बात नहीं कर पातीं। जनरल रिलेटिविटी एक क्लासिकल थ्योरी है, जो स्मूथ स्पेस-टाइम की बात करती है, जबकि क्वांटम मैकेनिक्स संभाव्यता (probability) और असतत (discrete) क्वांटा की बात करती है, और अनिश्चितता सिद्धांत को शामिल करती है। ये विरोधाभास खासकर उन चरम स्थितियों में सामने आता है जहाँ गुरुत्वाकर्षण बहुत मजबूत होता है और स्केल बहुत छोटा होता है – जैसे कि बिग बैंग के समय या ब्लैक होल के केंद्र (सिंगुलैरिटी) में। इन जगहों पर हमें एक ऐसी थ्योरी की जरूरत है जो क्वांटम मैकेनिक्स और जनरल रिलेटिविटी दोनों को एक साथ ला सके – एक 'क्वांटम थ्योरी ऑफ ग्रेविटी' (Quantum Theory of Gravity)। यही वो सपना है जिसे वैज्ञानिक 'भौतिकी का एकीकरण' (Unification of Physics) या 'थ्योरी ऑफ एवरीथिंग' (Theory of Everything - TOE) कहते हैं। एक ऐसी अकेली, सुसंगत गणितीय फ्रेमवर्क जो प्रकृति के सभी मूल कणों और सभी चार मूल शक्तियों (गुरुत्वाकर्षण समेत) का वर्णन कर सके। एक ऐसी थ्योरी जो बता सके कि यूनिवर्स क्यों ऐसा है जैसा वो है, उसके नियम कहाँ से आए, और शायद ये भी कि क्या ये नियम अलग भी हो सकते थे। ये विज्ञान की सबसे बड़ी महत्वाकांक्षाओं में से एक है। क्या हम ऐसी थ्योरी के करीब हैं? स्टीफन हॉकिंग अपनी किताब के अंत में इसी सवाल पर विचार करते हैं। वो उन मुख्य रास्तों की चर्चा करते हैं जिन्हें वैज्ञानिक इस 'पवित्र प्याले' को खोजने के लिए अपना रहे हैं। इनमें सबसे प्रमुख है 'स्ट्रिंग थ्योरी' (String Theory) या इसका आधुनिक रूप 'एम-थ्योरी' (M-Theory)। स्ट्रिंग थ्योरी का मूल विचार बहुत ही आकर्षक है। ये कहती है कि मूल कण (क्वार्क, लेप्टॉन, फोटॉन, आदि) असल में बिंदु जैसे कण नहीं हैं, बल्कि वो एक-आयामी, कंपित होते धागे (vibrating strings) के विभिन्न रूप हैं। ये धागे बहुत-बहुत छोटे होते हैं (शायद प्लैंक लेंथ के आकार के, जो लगभग 10⁻³⁵ मीटर है!), इसलिए हमें वो बिंदु जैसे ही दिखते हैं। जैसे एक वायलिन का तार अलग-अलग तरह से कंपित होकर अलग-अलग सुर निकालता है, वैसे ही ये स्ट्रिंग अलग-अलग पैटर्न में कंपित होकर अलग-अलग कणों की तरह व्यवहार करती हैं! एक तरह का कंपन इलेक्ट्रॉन जैसा दिखेगा, दूसरी तरह का फोटॉन जैसा, तीसरी तरह का क्वार्क जैसा, और एक खास तरह का कंपन 'ग्रेविटॉन' (गुरुत्वाकर्षण का वाहक कण) जैसा भी दिखेगा! ये कमाल की बात है! स्ट्रिंग थ्योरी में गुरुत्वाकर्षण अपने आप, स्वाभाविक रूप से शामिल हो जाता है, जो कि क्वांटम फील्ड थ्योरी के स्टैंडर्ड मॉडल में नहीं होता। ये क्वांटम ग्रेविटी की समस्या का एक संभावित समाधान प्रस्तुत करती है। स्ट्रिंग थ्योरी ये भी सुझाव देती है कि स्पेस-टाइम के सिर्फ चार आयाम (तीन स्पेस + एक टाइम) ही नहीं हैं, बल्कि और भी अतिरिक्त, मुड़े हुए (compactified) आयाम हो सकते हैं! शायद कुल 10 या 11 आयाम हों! ये अतिरिक्त आयाम इतने छोटे होते हैं कि हम उन्हें अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में महसूस नहीं करते, लेकिन वो स्ट्रिंग के कंपन को प्रभावित करते हैं और कणों के गुणों को निर्धारित करते हैं। स्ट्रिंग थ्योरी गणितीय रूप से बहुत सुंदर और शक्तिशाली है। इसने भौतिकी और गणित के कई क्षेत्रों में नई अंतर्दृष्टियाँ प्रदान की हैं। इसने 'होलोग्राफिक प्रिंसिपल' (holographic principle) जैसे विचारों को जन्म दिया है, जो सुझाव देता है कि शायद हमारे त्रि-आयामी यूनिवर्स की सारी जानकारी उसकी द्वि-आयामी सतह पर एन्कोड की जा सकती है, ठीक एक होलोग्राम की तरह! इसने ब्लैक होल इन्फॉर्मेशन पैराडॉक्स को समझने में भी मदद की है। लेकिन स्ट्रिंग थ्योरी की अपनी चुनौतियाँ भी हैं। पहली, ये गणितीय रूप से बहुत जटिल है, और इसके समीकरणों का सटीक हल निकालना मुश्किल है। दूसरी, ये सिर्फ एक नहीं, बल्कि कई अलग-अलग स्ट्रिंग थ्योरीज (पांच मुख्य प्रकार) प्रतीत होती थीं। 1990 के दशक में, एडवर्ड विटेन (Edward Witten) और अन्य वैज्ञानिकों ने दिखाया कि ये पांचों थ्योरीज शायद एक ही अंतर्निहित, 11-आयामी थ्योरी के अलग-अलग पहलू हैं, जिसे 'एम-थ्योरी' कहा गया (एम का मतलब मिस्ट्री, मैजिक, मेम्ब्रेन या मदर हो सकता है!)। एम-थ्योरी में सिर्फ स्ट्रिंग ही नहीं, बल्कि उच्च-आयामी वस्तुएं जिन्हें 'ब्रेन्स' (branes - membranes का छोटा रूप) कहते हैं, वो भी शामिल हैं। तीसरी और सबसे ब़डी चुनौती ये है कि स्ट्रिंग/एम-थ्योरी ने अभी तक कोई ऐसी भविष्यवाणी नहीं की है जिसे प्रयोगों द्वारा जाँचा जा सके। इसके द्वारा prédire (भविष्यवाणी) किए गए प्रभाव आमतौर पर इतनी उच्च ऊर्जा पर होते हैं (जैसे प्लैंक एनर्जी) कि उन्हें हमारे वर्तमान पार्टिकल एक्सेलरेटर में पहुँच पाना संभव नहीं है। बिना प्रायोगिक पुष्टि के, स्ट्रिंग थ्योरी अभी भी एक गणितीय फ्रेमवर्क ही बनी हुई है, भले ही कितनी भी आकर्षक क्यों न हो। कुछ आलोचक इसे 'विज्ञान' के बजाय 'गणित' या 'दर्शन' के ज्यादा करीब मानते हैं। हॉकिंग खुद स्ट्रिंग थ्योरी को लेकर आशान्वित थे, लेकिन वो भी प्रायोगिक सबूतों की कमी को स्वीकार करते थे। क्वांटम ग्रेविटी की खोज का एक और रास्ता है 'लूप क्वांटम ग्रेविटी' (Loop Quantum Gravity - LQG)। ये स्ट्रिंग थ्योरी से काफी अलग दृष्टिकोण अपनाता है। ये अतिरिक्त आयामों या सुपरसिमेट्री (SUSY) जैसे विचारों को नहीं मानता। इसके बजाय, ये सीधे आइंस्टीन के स्पेस-टाइम की अवधारणा को क्वांटाइज करने की कोशिश करता है। LQG के अनुसार, स्पेस खुद भी दानेदार (granular) या क्वांटाइज्ड है! यानी स्पेस छोटे-छोटे अविभाज्य 'आयतन' (volume) के टुकड़ों से मिलकर बना है, जिन्हें क्वांटम ऑफ स्पेस कहते हैं। इसी तरह, क्षेत्रफल (area) भी क्वांटाइज्ड है। ये सिद्धांत भविष्यवाणी करता है कि स्पेस की एक न्यूनतम संभव लंबाई (प्लांक लेंथ) होती है, जिससे छोटी कोई दूरी नहीं हो सकती। LQG बिग बैंग सिंगुलैरिटी को 'बिग बाउंस' (Big Bounce) से बदलने का सुझाव देता है, जहाँ सिकुड़ता हुआ यूनिवर्स एक न्यूनतम आकार तक पहुँचकर वापस फैलने लगता है। LQG की भी अपनी गणितीय जटिलताएँ हैं और इसे भी अभी तक प्रायोगिक रूप से परखा नहीं जा सका है। तो क्या हम कभी 'थ्योरी ऑफ एवरीथिंग' खोज पाएंगे? हॉकिंग अपनी किताब में इस पर आशावादी दृष्टिकोण रखते हैं। उनका मानना था कि इंसान की जिज्ञासा और तर्क करने की क्षमता हमें प्रकृति के अंतिम नियमों को समझने में मदद करेगी। उन्होंने सोचा था कि शायद 21वीं सदी के अंत तक हम ऐसी थ्योरी खोज लेंगे। हालांकि, वो ये भी मानते थे कि ऐसी थ्योरी शायद गणितीय रूप से इतनी जटिल हो कि उसे पूरी तरह समझना मुश्किल हो, या शायद उसके कई संभावित हल हों, जिनमें से हमारा यूनिवर्स सिर्फ एक हो (एन्थ्रॉपिक प्रिंसिपल का आइडिया)। लेकिन अगर हम ऐसी थ्योरी खोज भी लेते हैं, तो क्या इसका मतलब होगा कि विज्ञान खत्म हो जाएगा? हॉकिंग ऐसा नहीं मानते थे। उनका कहना था कि अंतिम थ्योरी मिल जाने के बाद भी, उससे जटिल सिस्टम (जैसे केमिस्ट्री, बायोलॉजी, या इंसानी दिमाग) के व्यवहार की भविष्यवाणी करना अभी भी बहुत मुश्किल होगा। समझने के लिए हमेशा कुछ नया रहेगा। 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' हमें इस अंतिम खोज की दहलीज पर लाकर छो़ड देती है। ये हमें दिखाती है कि विज्ञान कैसे काम करता है – कैसे हम अवलोकन करते हैं, थ्योरी बनाते हैं, भविष्यवाणी करते हैं, और फिर उन भविष्यवाणियों को परखते हैं। ये हमें दिखाती है कि हमारी समझ लगातार विकसित हो रही है, और जो आज रहस्य लगता है, वो कल शायद सुलझ जाए। ये किताब हमें ब्रह्मांड के प्रति आश्चर्य और जिज्ञासा से भर देती है। ये हमें याद दिलाती है कि हम एक विशाल, जटिल और खूबसूरत यूनिवर्स का हिस्सा हैं, और हमारे पास इसे समझने की अद्भुत क्षमता है। स्टीफन हॉकिंग ने खुद अपनी जिंदगी से ये साबित किया कि शारीरिक सीमाएं इंसान की बौद्धिक उड़ान को रोक नहीं सकतीं। उनकी ये किताब सिर्फ विज्ञान की कहानी नहीं है, ये इंसानी जज्बे, जिज्ञासा और ज्ञान की प्यास की भी कहानी है। तो दोस्तों, ये थी हमारी यात्रा स्टीफन हॉकिंग की दुनिया में, उनकी किताब 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' के साथ। उम्मीद है आपको ये सफर पसंद आया होगा और इसने आपके मन में ब्रह्मांड के रहस्यों को जानने की और इच्छा जगाई होगी। समापन: तो दोस्तों, इसी के साथ 'ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम' पर आधारित हमारी ये लंबी और ज्ञानवर्धक ओडियोबुक यात्रा यहीं समाप्त होती है। हमने साथ मिलकर ब्रह्मांड के कई रहस्यों को छुआ – अरस्तु से लेकर आइंस्टीन तक हमारी बदलती सोच, स्पेस-टाइम का लचीलापन, क्वांटम की अनिश्चित दुनिया, बिग बैंग से यूनिवर्स की शुरुआत, डार्क मैटर और डार्क एनर्जी के रहस्य, ब्लैक होल का बनना और उनका वाष्पीकरण, समय का तीर, और अंत में भौतिकी के एकीकरण की अंतिम खोज। स्टीफन हॉकिंग की ये किताब हमें याद दिलाती है कि हमारा ब्रह्मांड कितना विशाल, कितना पुराना और कितना अजीब है। ये हमें हमारी अपनी ক্ষুদ্রता (तुच्छता) का एहसास कराती है, लेकिन साथ ही हमारी समझ की शक्ति का भी। हम, जो सितारों की धूल से बने हैं, उन सितारों को और पूरे ब्रह्मांड को समझने की कोशिश कर रहे हैं – ये अपने आप में एक अद्भुत बात है! इस ओडियोबुक के माध्यम से हमने सीखा कि ज्ञान की कोई सीमा नहीं होती। सवाल पूछना, जिज्ञासा रखना, और जवाब खोजने की कोशिश करना ही हमें इंसान बनाता है। हमने जाना कि विज्ञान कैसे पुराने विचारों को चुनौती देकर आगे बढता है, और कैसे आज के रहस्य कल की समझ बन सकते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात, हमने सीखा कि यूनिवर्स के नियम शायद जटिल हों, लेकिन वो समझ से परे नहीं हैं। हम ओडियोबुक Legends की पूरी टीम की तरफ से आपका तहे दिल से शुक्रिया अदा करना चाहते हैं कि आप हमारे साथ इस लंबे सफर में बने रहे। हमें उम्मीद है कि इस ओडियोबुक ने आपको यूनिवर्स के बारे में सोचने और और जानने के लिए प्रेरित किया होगा। ये विषय गहरे और कभी-कभी मुश्किल हो सकते हैं, लेकिन हमने कोशिश की कि इन्हें एक दोस्त की तरह, सरल भाषा में आप तक पहुँचाया जाए। अगर आपको हमारा ये प्रयास पसंद आया हो, अगर आपको इस ओडियोबुक से कुछ नया सीखने को मिला हो, या अगर इसने आपके मन में कोई सवाल या विचार जगाया हो, तो कृपया नीचे कमेंट सेक्शन में हमें जरूर बताएं। आपकी प्रतिक्रिया हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण है। और हाँ, अगर आप चाहते हैं कि हम भविष्य में भी ऐसी ही ज्ञानवर्धक और रोचक ओडियोबुक्स आपके लिए लाते रहें, तो कृपया इस वीडियो को लाइक करना न भूलें, अपने दोस्तों और परिवार के साथ इसे शेयर करें, और सबसे जरूरी, हमारे चैनल "ओडियोबुक Legends" को सब्सक्राइब जरूर करें और बेल आइकॉन दबा दें ताकि आप हमारा कोई भी नया एपिसोड मिस न करें। एक बार फिर, इस अद्भुत यात्रा में हमारा साथ देने के लिए आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद! याद रखिए, सवाल पूछते रहिए, सीखते रहिए, और अपने आसपास के ब्रह्मांड को आश्चर्य से देखते रहिए। हम जल्द ही मिलेंगे एक और रोमांचक ओडियोबुक के साथ, सिर्फ ओडियोबुक Legends पर। तब तक के लिए, अपना ख्याल रखें और ज्ञान की खोज जारी रखें! अलविदा!
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Crime and Punishment Novel by Fyodor Dostoevsky 20250506 122152.txt
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